भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
परन्तु यदि प्रियतम और उनकी मंगलमयी लीला की मंजु सामग्री अखण्ड अनन्त आनन्दस्वरूप ही है, तब तो उस अपरिमित रस के आस्वादन से उनको विरति नहीं हो सकती, क्योंकि वह अद्वैत आनन्दैकरस ही हैं, दूसरी वस्तु नहीं। यदि वस्तुतः परमार्थिक अखण्डैकरस अद्वैत आनन्द से पृथक है, तब तो वही बात हुई कि जैसे लोक में किसी को दुष्प्राप्य धवलधाम और मनोहर उद्यान देखकर उनकी प्राप्ति के लिये बड़ी उत्कण्ठा होती है और उनके मिलने पर कुछ क्षण बड़ा हर्ष भी होता है, परन्तु कुछ ही काल में चित्त अन्य विषयों के चिन्तन में व्यग्र हो जाता है और वे समस्त सौख्य सामग्रियाँ सामने होने पर भी अपना प्रभाव उसके चित्त पर नहीं डाल सकतीं। फिर तो वह और ही चिन्ता में ग्रस्त हो जाता है। दूसरे की दृष्टि में वह बहुत सुखी होेने पर भी अपनी दृष्टि में दुःखी होता है। ठीक वैसे ही थोड़ी देर में नाना प्रकार के रसास्वादन के अनन्तर मन कुछ और चाहने लगता है। वहाँ भी यदि नींद में बाधा पड़ी तब तो प्रजागर दोष समझा जाने लगता है। कहने का आशय यही कि प्रियतम से मिलकर भी प्रेमी की सोने के लिये प्रवृत्ति होती है। वस्तुतः जिनके पास जितनी अधिक भोग सामग्री है, वे उतना ही अधिक सोने में प्रवृत्त होते हैं। यह सब इसीलिये कि चाहे कितना ही सुख क्यों न हो, परन्तु वह दुःखरूप ही है। दृश्य दर्शन में श्रम है, अतः उससे परिश्रान्त होकर प्राणी निरायास, अखण्ड, आनन्द ब्रह्म में विश्रान्ति चाहता है। वास्तव में सभी तत्त्व अपने अधिष्ठानभूत परमात्मा से वियुक्त होकर संतप्त होते हैं। जैसे किसी सूत्र में बँधा हुआ कोई पक्षी प्रतिदिशा में भ्रमण करने से परिश्रान्त होकर विश्रान्ति के लिये, बन्धनसूत्र के आश्रय काष्ठ का ही समाश्रयण करता है, वैसे ही नाना प्रकार के कर्मों से परतन्त्र होकर जीव, जाग्रत एवं स्वप्न की अवस्थाओं में, स्वाश्रयभूत प्रभु से वियुक्त होकर, भिन्न-भिन्न विषयों में भटकता है। जाग्रत एवं स्वप्न के हेतुभूत अविद्या, काम कर्मों के क्षीण होने पर, वह पुनः विश्रान्ति के लिये भगवान का ही अवलम्बन करता है। श्रुतियों में जीव को प्रभु का अंश बतलाया है और कहा है कि जैसे अग्नि से विस्फुलिंग (चिंगारी) का निर्गम होता है, उसी तरह परमात्मा से जीवों का निर्गम होता है। “तद्यथा अग्नेर्विस्फुलिंगा व्युच्चरन्ति, एवमेवैतस्मादात्मनः सर्वे जीवाः सर्वे लोकाः।” निष्कल, निरवयव, अखण्ड, अनन्त परमात्मा में छेदन-भेदनादि द्वारा किसी तरह से भी खण्ड होना असम्भव होने से मुख्य अंश-अंशि भाव तो सम्पन्न नहीं होता। अतः काल्पनिक अंश-अंश भाव लोग मानते हैं। अन्यान्य लोग कहते हैं कि जैसे चन्द्रमा का शतांश शुक्र है, वैसे ही परमात्मा का अंश जीव है। इनके मत में “तत्सदृशत्वे सति ततो न्यूनत्वम्” यही अंश-कथन का आशय है। परन्तु अद्वैतवादियों का कहना है कि चन्द्रमा का और शुक्र का अंश-अंशि भाव बहुत बाह्य एवं औपचारिक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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