भक्ति सुधा -करपात्री महाराज पृ. 750

भक्ति सुधा -करपात्री महाराज

वेदान्त-रससार

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परन्तु यदि प्रियतम और उनकी मंगलमयी लीला की मंजु सामग्री अखण्ड अनन्त आनन्दस्वरूप ही है, तब तो उस अपरिमित रस के आस्वादन से उनको विरति नहीं हो सकती, क्योंकि वह अद्वैत आनन्दैकरस ही हैं, दूसरी वस्तु नहीं। यदि वस्तुतः परमार्थिक अखण्डैकरस अद्वैत आनन्द से पृथक है, तब तो वही बात हुई कि जैसे लोक में किसी को दुष्प्राप्य धवलधाम और मनोहर उद्यान देखकर उनकी प्राप्ति के लिये बड़ी उत्कण्ठा होती है और उनके मिलने पर कुछ क्षण बड़ा हर्ष भी होता है, परन्तु कुछ ही काल में चित्त अन्य विषयों के चिन्तन में व्यग्र हो जाता है और वे समस्त सौख्य सामग्रियाँ सामने होने पर भी अपना प्रभाव उसके चित्त पर नहीं डाल सकतीं। फिर तो वह और ही चिन्ता में ग्रस्त हो जाता है। दूसरे की दृष्टि में वह बहुत सुखी होेने पर भी अपनी दृष्टि में दुःखी होता है। ठीक वैसे ही थोड़ी देर में नाना प्रकार के रसास्वादन के अनन्तर मन कुछ और चाहने लगता है। वहाँ भी यदि नींद में बाधा पड़ी तब तो प्रजागर दोष समझा जाने लगता है। कहने का आशय यही कि प्रियतम से मिलकर भी प्रेमी की सोने के लिये प्रवृत्ति होती है।

वस्तुतः जिनके पास जितनी अधिक भोग सामग्री है, वे उतना ही अधिक सोने में प्रवृत्त होते हैं। यह सब इसीलिये कि चाहे कितना ही सुख क्यों न हो, परन्तु वह दुःखरूप ही है। दृश्य दर्शन में श्रम है, अतः उससे परिश्रान्त होकर प्राणी निरायास, अखण्ड, आनन्द ब्रह्म में विश्रान्ति चाहता है। वास्तव में सभी तत्त्व अपने अधिष्ठानभूत परमात्मा से वियुक्त होकर संतप्त होते हैं। जैसे किसी सूत्र में बँधा हुआ कोई पक्षी प्रतिदिशा में भ्रमण करने से परिश्रान्त होकर विश्रान्ति के लिये, बन्धनसूत्र के आश्रय काष्ठ का ही समाश्रयण करता है, वैसे ही नाना प्रकार के कर्मों से परतन्त्र होकर जीव, जाग्रत एवं स्वप्न की अवस्थाओं में, स्वाश्रयभूत प्रभु से वियुक्त होकर, भिन्न-भिन्न विषयों में भटकता है। जाग्रत एवं स्वप्न के हेतुभूत अविद्या, काम कर्मों के क्षीण होने पर, वह पुनः विश्रान्ति के लिये भगवान का ही अवलम्बन करता है। श्रुतियों में जीव को प्रभु का अंश बतलाया है और कहा है कि जैसे अग्नि से विस्फुलिंग (चिंगारी) का निर्गम होता है, उसी तरह परमात्मा से जीवों का निर्गम होता है। “तद्यथा अग्नेर्विस्फुलिंगा व्युच्चरन्ति, एवमेवैतस्मादात्मनः सर्वे जीवाः सर्वे लोकाः।”

निष्कल, निरवयव, अखण्ड, अनन्त परमात्मा में छेदन-भेदनादि द्वारा किसी तरह से भी खण्ड होना असम्भव होने से मुख्य अंश-अंशि भाव तो सम्पन्न नहीं होता। अतः काल्पनिक अंश-अंश भाव लोग मानते हैं। अन्यान्य लोग कहते हैं कि जैसे चन्द्रमा का शतांश शुक्र है, वैसे ही परमात्मा का अंश जीव है। इनके मत में “तत्सदृशत्वे सति ततो न्यूनत्वम्” यही अंश-कथन का आशय है। परन्तु अद्वैतवादियों का कहना है कि चन्द्रमा का और शुक्र का अंश-अंशि भाव बहुत बाह्य एवं औपचारिक है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भगवत्प्राप्ति 1
2. नामरूप की उपयोगिता 3
3. इष्टदेव की उपासना 8
4. मानसी-आराधना 20
5. सगुणोपासना में सरलता 24
6. संकल्पबल 28
7. श्री शिवतत्व 48
8. शिव से शिक्षा 60
9. शिवलिंगोपासना-रहस्य 63
10. श्री विष्णु-तत्त्व 88
11. गायत्री-तत्त्व 97
12. श्री भगवती-तत्त्व 102
13. बुद्धावतार का प्रयोजन 178
14. गजेन्द्र-मुक्ति 182
15. शक्ति का स्वरूप 188
16. माँ के चरणों में 194
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18. गणपति तत्त्व 235
19. अवतारमीमांसा 247
20. निराकार से साकार 255
21. भगवदवतार का प्रयोजन 275
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23. ज्ञान और भक्ति 287
24. भक्तिरसामृतास्वादन 327
25. अव्यभिचार भक्तियोग 352
26. सबसे सगे भगवान 360
27. चतुर्विधा भजन्ते 363
28. भगवच्छरणागति से ही गति 367
29. भगवान का अवलम्बन अनिवार्य 372
30. प्रेमतत्त्व 375
31. भगवान और प्रेम 384
32. भगवत्कथामृत 390
33. प्रभुकृपा 396
34. निर्बल का बल 401
35. करुणालहरी 408
36. श्रीरामजन्म-रहस्य 411
37. श्री रामभद्र का ध्यान 415
38. श्रीकृष्ण-जन्म 422
39. भगवान का मंगलमय स्वरूप 428
40. विभीषण-शरणागति 450
41. श्रीकृष्ण बालक्रीड़ा 469
42. साक्षान्मन्मथमन्मथः 486
43. श्रीवृन्दावन में वर्षा और शरत 507
44. वेणुरव 512
45. किरातिनियों का स्मररोग 517
46. वेणुगीत 525
47. चीरहरण 691
48. वेदान्त-रससार 730
49. निर्गुण या सगुण? 781
50. व्रज-भूमि 797
51. सर्वसिद्धान्त-समन्वय 808
52. क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा? 839
53. श्रीरासलीलारहस्य 854
54. श्री रासपञ्चाध्यायी 1142

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