भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
प्रकाशान्तर-निपेक्ष प्रकाशमान ‘स्वयंप्रकाश’ कहा जाता है। मन, बुद्धि और मैं का भासक, अकेला शुद्ध भान तो भास्य न होने से स्वयं प्रकाश है। अतः यह भान ही सर्वदा प्रकाशान्तर-निरपेक्ष भासमान होकर स्थिर है और तदतिरिक्त सभी भास्य अस्थिर हैं। इसीलिये जागर और स्वप्न में ‘अहं’ और ‘बुद्धि’ एवं ‘मन’ यद्यपि उपलब्ध होते हैं, परन्तु सुषुप्ति में इन सबका अभाव हो जाता है। उस समय भी जागर और स्वप्न में सकल दृश्य के भाव का और सुषुप्ति में समस्त व्यक्त दृश्य के अभाव का प्रकाश करने वाला, एवं सर्वदृश्य के विलयन का आधारभूत, सुषुप्ति व गाढ़ निद्रा या अज्ञान का भासन करने वाला, कूटस्थ भानरूप आत्मा ही विराजमान रहता है। इसी का संकेत भागवत में इस तरह किया है-
इस प्रकार अखण्ड, अनन्त, परमसूक्ष्म वस्तु का बोध अत्र्यन्त दुर्लभ है। जिन स्थूल पदार्थों का बोध प्राणियों को है, उनके नाश में सर्वनाश या आत्मनाश की प्रतीति होनी युक्त ही है। इसलिये श्रीगौड़पादाचार्य भगवान कहते हैं कि- “अस्पर्शयोगो नामैष दुर्दर्शः सर्वयोगिनाम्। योगिनो बिभ्यति ह्यस्मादभये भयदर्शिनः।।” सर्वस्पर्श, सर्वदृश्य सम्बन्ध से रहित, भास्य-विवर्जित, परमसूक्ष्म, अखण्डानन्द रूप काल्पनिक सर्वभाव तथा अभावों का भासक, कूटस्थ भान आत्मा, तत्त्वज्ञ से भिन्न समस्त योगियों के लिये दुर्दर्श है, क्योंकि दृश्य ही जिनका सर्वस्व है, दृश्य से भिन्न स्वप्रकाश अखण्डानन्त द्रष्टा पर जिनकी कभी दृष्टि गयी ही नहीं, उन्हें दृश्य के नाश से परमानन्दसुधासिन्धु के सर्वतोभावेन भरपूर होने पर भी सर्वस्वनाश होने की ही प्रतीति होती है। किसी भिक्षुकी के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर किसी सम्राट ने उसे साम्राज्ञी होने को कहा; किन्तु भिक्षुकी यह समझकर कि हमारी भिक्षा माँगने की सामग्री और भिक्षा का आनन्द चला जायगा, साम्राज्ञी बनने से डर गयी। कारण कि साम्राज्ञी के सुख की कल्पना कभी उसकी दृष्टि में हुई ही नहीं, उसे तो भिक्षा और उसके ही आनन्द का सर्वदा संस्कार रहा। ठीक इसी तरह जिन्हें कभी अखण्डानन्दमय, निर्विकार दृक् के अनन्त सौख्य की अनुभूति हुई ही नहीं, केवल कटु दृश्य के ही अक्षुण्ण संस्कार प्राप्त हो रहे हैं, उनको दृश्य ही सरस प्रतीत होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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