भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
भास्य से भासक या भान पृथक ही है। जिस रीति से चार्वाक प्रभृति को देह में ही आत्मबुद्धि हुई, क्योंकि आत्मा के ही पारम्परीण सम्बन्ध से देह में भी किंचित चेतनता, इष्टता या प्रेमास्पदता भासित होती है और उसी से उन अत्यन्त अज्ञ, लौकिक, पामर एवं चार्वाकों को देहनाश में ही आत्मनाश की बुद्धि हुई, उसी प्रकार ‘अहमर्थनाश’ में ‘आत्मनाश’ की बृद्धि इतर दार्शनिकों को भी हुई। ‘अहं श्यामो’, ‘अहं गौरः’ मैं काला हूँ, मैं गौर हूँ, स्थूल हूँ, कृश हूँ इस तरह स्थौल्यादि धर्मवान् देह में जैसे अहमर्थ के अभेद का अध्यास होता है, वैसे ही चिज्जड़ग्रन्थि अहमर्थ में चैतन्यानन्दघन भगवान का अभेदाध्यास होता है। इसी वास्ते सर्वस्पर्शविहीन ( “स्पृश्यन्ते इति स्पर्शाः विषयाः” इस व्युत्पत्ति के अनुसार समस्त दृश्य ही स्पर्श हैं) अर्थात सर्वदृश्य-विहीन, परम सूक्ष्म, सर्वावभासक, स्वप्रकाश, चैतन्यानन्दघन, परम अभय भगवान में अज्ञों को भय होता है। देखा जाता है कि प्राणियों को स्थूल पदार्थों का ही आधिक्येन भान होता है इसीलिये नील, पीत, हरित रूपों की जैसी स्फुट प्रतीति होती है वैसी अनेक रूपों का प्रकाश करने वाली प्रभा की स्फुटता नहीं होती। प्रभा का प्रकाश करने वाले नेत्रालोक का विज्ञान उससे भी अधिक दुर्लभ है। कोई ही यह समझता है कि जैसे प्रभा के न होने पर रूप का प्रकाश नहीं हुआ और प्रभा के होने पर रूप का प्रकाश हुआ, अतः प्रभा रूप से पृथक है, वैसे ही नेत्र-निमीलन काल में प्रभा का भी भान नहीं था और नेत्रोन्मीलन काल में प्रभा की प्रतीति हुई, अतः नेत्र के उन्मीलन-काल में एक अति सूक्ष्म नेत्रालोक ही प्रभा पर व्याप्त होकर प्रभा का प्रकाशन करता है। अस्तु, इसके उपरान्त भी नेत्रालोक की मन्दता और पटुता का प्रकाश करने वाला मानसालोक (मानस-प्रकाश) नेत्रालोक से पृथक ही है, जिससे कि मेरी नेत्र ज्योति मन्द है या तीव्र है, यह जाना जाता है। मनुष्य मन के काम, संकल्प, संशय आदि अनेक विकारों को जानकर निश्चयात्मिका बुद्धि से निश्चय करता है कि मैं स्थिर बुद्धि से मन और उसके विकारों को निरुद्ध करूँगा। यहाँ स्पष्टतया तीनों अंशों की प्रतीति होती है-जिसका निरोध या नाश करेंगे वह मन और उसके संशयादि विकार, जिससे निरोध करेंगे वह साधनरूपा निश्चयात्मिका बुद्धि जिसके विषय में उसकी बुद्धि मन्द या अत्यन्त सूक्ष्म है इस तरह के अनुभव होते हैं और जो बुद्धि द्वारा मन का निरोध करने वाला है वह ‘अहं’ अर्थात ‘मैं’। इसी प्रकार से “अहं बुद्ध्या मनः संयच्छामि” (मैं बुद्धि से मन का नियन्त्रण करूँगा) ऐसे अनुभव में ‘मैं’, ‘बुद्धि’ और ‘मन’ इन तीनों की प्रतीति होती है। अतः ये सभी तो प्रतीति के विषय हो गये, इनकी प्रतीति या भान इनसे अवश्य पृथक है, क्योंकि एक में प्रकाश्य-प्रकाशक भाव नहीं बन सकता। इसीलिये प्रकाश्य से प्रकाशक भिन्न होता है, यह बात लोक में प्रसिद्ध है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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