भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
इस रीति से क्रमशः आत्मा के सन्निहित अत एव अन्तरंग बुद्ध्यादि के उद्वेगनिराकरण एवं अनुकूलता-सम्पादन करने के लिये बहिरंग करणें का निग्रह किया जाता है। अध्यात्म शास्त्रों में मनोनाश वासनाक्षय प्रसिद्ध ही है। यहाँ तक कि जो यह ‘अहं’ पद का वाच्यार्थ है, वह भी अन्तःकरण के अहंकारांश से उपहित आत्मा का औपाधिक रूप है। अतः वह भी असह्य होने के कारण निर्गाह हो जाता है, क्योंकि ‘अहं’ पद का लक्ष्यार्थ रूप जो निरुपाधिक शुद्ध स्वरूप है वही मन, बुद्धि एवं अहमर्थ और उसके सुखित्व, दुःखित्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि सर्व दृश्य का भासक और मिथ्याभूत समस्त भास्य के बाध का साक्षी, वस्तुतः भास्यभासकातीत, सर्वोपप्लवविवर्जित, त्रिकालाबाध्य, स्वप्रकाश परमानन्द चिदात्मा है। उसके स्वाभाविक अखण्डानन्द की अभिव्यक्ति में ‘अहमर्थ’ भी प्रतिबन्धक ही है। अभिप्राय यह है कि यद्यपि कुछ दार्शनिकों के मत में ‘अहं’ का वाच्यार्थ ही आत्मा है जो कि ‘अहं कर्ता’, ‘अहं भोक्ता’, ‘अहं सुखी’, ‘अहं दुःखी’ इस रूप से अनुभव में आ रहा है, अतः उसका नाश आत्मा का ही नाश है। मेरा देह, मेरी इन्द्रियाँ, मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा अहंकार, इस प्रकार जो ममता के आस्पद हैं, वे अनात्मा हैं और मेरी बुद्धि सुस्थिर है, मैं अपनी बुद्धि द्वारा अपने मन को निगृहीत करूँगा, इस प्रकार जो ‘अहंता’ का आस्पद ‘अहमर्थ’ है वही शुद्ध आत्मा है। उससे परे जीव का अपना कोई स्वरूप नहीं है, अतः ‘अहमर्थ’ का नाश करना आत्मा ही का नाश करना है। तथापि अभिज्ञ वेदान्ती का सिद्धान्त है कि ‘अहं’ का वाच्यार्थ आत्मा नहीं है, किन्तु लक्ष्यार्थ ही आत्मा है। अर्थात जैसे अग्नि के सम्बन्ध से अग्नि की दाहकता प्रकाशकता आदि शक्तियों से युक्त होने से लौहपिण्ड में अग्नि का भ्रममात्र होता है, शुद्ध निरुपाधिक अग्नि लौहपिण्ड से पृथक है, वैसे ही आत्मा के घनिष्ठ संसर्ग से अहमर्थ (मैं) में प्रेमास्पदता और चेतनता अधिक प्रतीत होती है, अत: उसमें आत्मा की भ्रान्तिमात्र है। वस्तुतस्तु मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा सुख, मेरा दुःख, मैं कर्ता, भोक्ता, सुखी, दुःखी या केवल मैं, ये सभी भास्य हैं, उनकी प्रतीति होती है इनका सुस्पष्ट भान होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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