भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
जिसमें स्वसम्बन्ध की घनिष्ठता हो गयी वही सर्वस्व है। जिसमें जितनी-जितनी स्वानुकूलता है, उसमें उतनी ही प्रेम की अधिकता और जिसमें जितनी स्वप्रतिकूलता है, उसमें उतनी ही द्वेष की अधिकता होती है। कोई व्यापारी बहुत दिनों के बाद अपने घर को लौट रहा था। मार्ग में किसी सराय में उसने निवास किया। दैवात् उसी सराय में रात को उसकी स्त्री अपने अत्यन्त रुग्ण पुत्र को लेकर आयी। रुग्ण बालक दुःख से घबराकर, चीख मारकर रो रहा था। उस व्यापारी ने अपनी नींद में बाधक समझकर बालक और उसकी माँ को रोष के साथ खरी-खोटी सुनायी। परन्तु प्रातःकाल होने पर जब उसे यह ज्ञात हुआ कि यह तो मेरे ही स्त्री और पुत्र हैं, तब तो उनके साथ ही वह अपने आप भी रोने लगा। इस तरह विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि निकृष्ट से निकृष्ट वस्तु में भी आत्मा के स्वसम्बन्ध की घनिष्ठता से प्रेम की अतिशयता और अत्यन्त उत्कृष्ट वस्तु में भी स्वसम्बन्ध की घनिष्ठता न होने से प्रेम की न्यूनता होती है। इतना ही नहीं, दूसरे की उत्कृष्ट वस्तु में द्वेष या ईर्ष्या पर्यन्त का संचार हो जाता है। तभी तो ये कट्टर नवीन शैव-वैष्णव परस्पर एक-दूसरे के इष्ट का उत्कर्ष नहीं सहन कर सकते हैं। अब सोचने की बात है कि जिसके सम्बन्ध से निकृष्ट में भी लोकोत्तर प्रेम और जिसके सम्बन्ध बिना परम उत्कृष्ट में भी द्वेष या ईर्ष्या होती है, वह निरतिशय निरुपाधिक प्रेम का आस्पद है कि नहीं। जब शर्करा के सम्बन्ध से स्वभावतः माधुर्यशून्य पदार्थों में भी मधुरिमा का अनुभव होता है, तब क्या शर्करा में मधुरिमा का अभाव कहा जा सकता है? जब स्वस्वरूप आत्मा के सम्बन्ध से प्रेम के अयोग्य पदार्थों में भी प्रेम होता है, तब क्या आत्मा में अन्यशेषता या प्रेम की निकर्षता कही जा सकती है? प्रत्युत स्पष्ट रूप से यही कहा जा सकता है कि आत्मा के सन्निहित में प्रेम या आधिक्य और विप्रकृष्ट में प्रेम की न्यूनता होती है। तभी देखते हैं कि प्रियतम, कलत्र एवं पुत्र की रक्षा के लिये अनेकानेक प्रयत्न से उपार्जन की हुई रत्नादि सम्पत्तियों को त्याग देने में विलम्ब नहीं होता, किन्तु कलत्र, पुत्र प्रभृति यदि अपने शरीर के प्रतिकूल प्रतीत होते हैं, तो अप्रिय ही नहीं किन्तु शत्रु समझे जाते हैं। किसी गृह में अग्नि लग रही है, पता चलता है कि अत्यन्त प्रिय पुत्र गृह के भीतर रह गया है। गृहपति अत्यन्त व्याकुल होता है, रुदन करता है, लोगों से कहता है- “भाई, चाहे कोई हमारा समस्त धनधान्य रत्नादि ले ले, परन्तु हमारे प्रिय पुत्र को जलते हुए भवन से निकाल लाये।” यह सब कुछ होते हुए भी अपना शरीर इतना प्रिय है कि कोई अत्यन्त धन के लोभ से भी उसका नाश नहीं सहन कर सकता। जिसका प्रिय पुत्र है, वह स्वयं जलते हुए घर में प्रवेश नहीं करता; केवल बाहर दूर खड़ा तड़फड़ाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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