भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
इस प्रकार यही सिद्ध होता है कि परमानन्द रसात्मक भगवान ही चिदानन्दमयी जीव शक्ति के भीतर, बाहर तथा मध्य में भरपूर हैं। किंबहुना जीवशक्ति विशुद्धरसरूप भगवान ही हैं। आनन्दसुधासिंधु भगवान की लहरीरूप जीवशक्ति भी “चेतन अमल सहज सुखराशि” ही है। जैसे बर्फ की पुतली सिंधु के बीच में रहकर प्यास की रटन रटे, किंवा जैसे निखिल रसामृतसिन्धुसारसर्वस्व कृष्णसुधा में अहर्निश सर्वांगीण संश्लेष रूप अवगाहन करती हुई भी, कृष्ण प्रेमयसी श्रीवृषभानुनन्दिनी अधिरूढ़ महाभाव की विलक्षण अवस्था विशेष परवश होकर “हा प्राणवल्ल, कहाँ हो” इस प्रकार मिलन के लिये व्यग्र होती हैं। “अंकस्थितेऽपि दयिते किमपि प्रलापं हा मोहनेति मधुरं विदधत्यकस्मात्”, वैसे ही प्रियतम की मोहिनी मायाश क्ति से परमानन्द रसार्णव भगवान में बर्फ पुतली की तरह निमग्न जीवशक्ति, प्रियतम को भूलकर, अनन्त संतापों में निमग्न सन्तप्त हो रही है। शास्त्र तथा आगमों के प्रबोधन से ही अज्ञान विस्मरण विभ्रम की निवृत्ति होती हैः- “आनन्दसिन्धु मध्य तब बासा, बिनु जाने कत मरत पिपासा”, “सो तै ताहि, तोहि नहिं भेदा, बारि बीचि जिमि गावहिं बेदा”। तू वही है, तुझमें उसमें किंचित भी भेद नहीं है, जैसे वारि और वीचि का भेद “कहियत भिन्न न भिन्न”। श्रीमद्भागवत के पुरंजन और पुरंजनी के आख्यान में, जिस समय जीवरूप पुरंजन मायावश अपने परम अंतरंग, प्रियतम सखा को भूलकर वृद्धि पुरंजनी का अत्यन्त अनुरागी होकर अनवरत पुरंजनी के चिन्तन में तन्मय हो गया, उस समय पुण्य परिपाक से पतिरूप गुरु की आराधना से सन्तुष्ट होकर, श्रीहंसरूपधारी भगवान ने प्रकट होकर पूछा कि तुम हमें जानती हो? पुरंजनी ने कहा “प्रभो! मैं आपको नहीं जानती।” इस पर भगवान ने कहा “ठीक है, मेरे विस्मरण का ही तो यह फल है। मुझे भूलने से ही अनेकानर्थमूल संसृतिचक्र में प्राणियों को भटकना पड़ता है। देखो, “अहंभावान्न चान्यस्त्वं त्वमेवाहं विचक्ष्व भो:, न नौ पश्यन्ति कवयश्च्छिद्रं जातु मनागपि” मैं ही तुम्हारा पारमार्थिक स्वरूप हूँ, तुम मुझसे पृथक नहीं हो। मैं ही तुम हो और तुम ही मैं हूँ। इस भाव को गम्भीरता से देखो। कवि लोग हमारे और तुम्हारे में कभी किंचिन्मात्र भी भेद नहीं देखते।” श्रीपरीक्षित की भी अन्त में “अहं ब्रह्म परंधाम ब्रह्माहं परमं पदम्” ऐसी ही दृढ़ धारण हुई। अन्यान्य वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की भी ऐसी धारण है- “अहं वै भगतो देवते त्वमसि त्वं वै भगवो देवते अहमस्मि।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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