भक्ति सुधा -करपात्री महाराज पृ. 738

भक्ति सुधा -करपात्री महाराज

वेदान्त-रससार

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इस प्रकार यही सिद्ध होता है कि परमानन्द रसात्मक भगवान ही चिदानन्दमयी जीव शक्ति के भीतर, बाहर तथा मध्य में भरपूर हैं। किंबहुना जीवशक्ति विशुद्धरसरूप भगवान ही हैं। आनन्दसुधासिंधु भगवान की लहरीरूप जीवशक्ति भी “चेतन अमल सहज सुखराशि” ही है। जैसे बर्फ की पुतली सिंधु के बीच में रहकर प्यास की रटन रटे, किंवा जैसे निखिल रसामृतसिन्धुसारसर्वस्व कृष्णसुधा में अहर्निश सर्वांगीण संश्लेष रूप अवगाहन करती हुई भी, कृष्ण प्रेमयसी श्रीवृषभानुनन्दिनी अधिरूढ़ महाभाव की विलक्षण अवस्था विशेष परवश होकर “हा प्राणवल्ल, कहाँ हो” इस प्रकार मिलन के लिये व्यग्र होती हैं। “अंकस्थितेऽपि दयिते किमपि प्रलापं हा मोहनेति मधुरं विदधत्यकस्मात्”, वैसे ही प्रियतम की मोहिनी मायाश क्ति से परमानन्द रसार्णव भगवान में बर्फ पुतली की तरह निमग्न जीवशक्ति, प्रियतम को भूलकर, अनन्त संतापों में निमग्न सन्तप्त हो रही है।

शास्त्र तथा आगमों के प्रबोधन से ही अज्ञान विस्मरण विभ्रम की निवृत्ति होती हैः- “आनन्दसिन्धु मध्य तब बासा, बिनु जाने कत मरत पिपासा”, “सो तै ताहि, तोहि नहिं भेदा, बारि बीचि जिमि गावहिं बेदा”। तू वही है, तुझमें उसमें किंचित भी भेद नहीं है, जैसे वारि और वीचि का भेद “कहियत भिन्न न भिन्न”। श्रीमद्भागवत के पुरंजन और पुरंजनी के आख्यान में, जिस समय जीवरूप पुरंजन मायावश अपने परम अंतरंग, प्रियतम सखा को भूलकर वृद्धि पुरंजनी का अत्यन्त अनुरागी होकर अनवरत पुरंजनी के चिन्तन में तन्मय हो गया, उस समय पुण्य परिपाक से पतिरूप गुरु की आराधना से सन्तुष्ट होकर, श्रीहंसरूपधारी भगवान ने प्रकट होकर पूछा कि तुम हमें जानती हो?

पुरंजनी ने कहा “प्रभो! मैं आपको नहीं जानती।” इस पर भगवान ने कहा “ठीक है, मेरे विस्मरण का ही तो यह फल है। मुझे भूलने से ही अनेकानर्थमूल संसृतिचक्र में प्राणियों को भटकना पड़ता है। देखो, “अहंभावान्न चान्यस्त्वं त्वमेवाहं विचक्ष्व भो:, न नौ पश्यन्ति कवयश्च्छिद्रं जातु मनागपि” मैं ही तुम्हारा पारमार्थिक स्वरूप हूँ, तुम मुझसे पृथक नहीं हो। मैं ही तुम हो और तुम ही मैं हूँ। इस भाव को गम्भीरता से देखो। कवि लोग हमारे और तुम्हारे में कभी किंचिन्मात्र भी भेद नहीं देखते।” श्रीपरीक्षित की भी अन्त में “अहं ब्रह्म परंधाम ब्रह्माहं परमं पदम्” ऐसी ही दृढ़ धारण हुई। अन्यान्य वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की भी ऐसी धारण है- “अहं वै भगतो देवते त्वमसि त्वं वै भगवो देवते अहमस्मि।”

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भगवत्प्राप्ति 1
2. नामरूप की उपयोगिता 3
3. इष्टदेव की उपासना 8
4. मानसी-आराधना 20
5. सगुणोपासना में सरलता 24
6. संकल्पबल 28
7. श्री शिवतत्व 48
8. शिव से शिक्षा 60
9. शिवलिंगोपासना-रहस्य 63
10. श्री विष्णु-तत्त्व 88
11. गायत्री-तत्त्व 97
12. श्री भगवती-तत्त्व 102
13. बुद्धावतार का प्रयोजन 178
14. गजेन्द्र-मुक्ति 182
15. शक्ति का स्वरूप 188
16. माँ के चरणों में 194
17. पीठ रहस्य 226
18. गणपति तत्त्व 235
19. अवतारमीमांसा 247
20. निराकार से साकार 255
21. भगवदवतार का प्रयोजन 275
22. भारत ही में अवतार क्यों? 281
23. ज्ञान और भक्ति 287
24. भक्तिरसामृतास्वादन 327
25. अव्यभिचार भक्तियोग 352
26. सबसे सगे भगवान 360
27. चतुर्विधा भजन्ते 363
28. भगवच्छरणागति से ही गति 367
29. भगवान का अवलम्बन अनिवार्य 372
30. प्रेमतत्त्व 375
31. भगवान और प्रेम 384
32. भगवत्कथामृत 390
33. प्रभुकृपा 396
34. निर्बल का बल 401
35. करुणालहरी 408
36. श्रीरामजन्म-रहस्य 411
37. श्री रामभद्र का ध्यान 415
38. श्रीकृष्ण-जन्म 422
39. भगवान का मंगलमय स्वरूप 428
40. विभीषण-शरणागति 450
41. श्रीकृष्ण बालक्रीड़ा 469
42. साक्षान्मन्मथमन्मथः 486
43. श्रीवृन्दावन में वर्षा और शरत 507
44. वेणुरव 512
45. किरातिनियों का स्मररोग 517
46. वेणुगीत 525
47. चीरहरण 691
48. वेदान्त-रससार 730
49. निर्गुण या सगुण? 781
50. व्रज-भूमि 797
51. सर्वसिद्धान्त-समन्वय 808
52. क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा? 839
53. श्रीरासलीलारहस्य 854
54. श्री रासपञ्चाध्यायी 1142

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