भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
श्रीराधा की अंशभूत या चिदानन्दमयी जीवशक्तियों का तादात्म्येन संमिलन, संभोग आदि सम्पन्न होता है। जैसे महासमुद्र में तरंग होते हैं, वैसे ही भगवान में जीवों का भाव है। अतएव, जैसे एक तरंग का सम्बन्ध दूसरे तरंग से होता है, उसी तरह एक जीव का सम्बन्ध दूसरे जीवों से होता है। यह सम्बन्ध आगन्तुक और स्थायी होता है। परन्तु तरंग का महासमुद्र के साथ सम्बन्ध स्वाभाविक होता है, (जब तक तरंग है तब तक उसके साथ समुद्र का सम्बन्ध भी अनिवार्य है) वैसे ही जीव का भगवान के साथ सम्बन्ध ही अकृत्रिम एवं स्वाभाविक है। इसीलिये भावुकों का कहना है कि किसी भी स्त्री के मुख्य पति भगवान ही हैं। कोई भी जीव हो, उसके साथ जीव का सम्बन्ध अस्थायी ही है। सभी तरंग जैसे समुद्र के परतन्त्र होते हैं वैसे ही सभी जीव भगवान के परतन्त्र होते हैं। इस तरह पारतन्त्र्यरूप स्त्रीत्व सभी जीवों में है। जीवभाव मिटकर परमात्मभावप्राप्ति में ही पूर्ण स्वातन्त्र्य एवं पुंस्त्व प्राप्त होता है। तथा च किसी भी स्त्री का अखण्ड सौभाग्य एवं पातिव्रत्य तभी रह सकता है, जब वह अनन्त अखण्ड भगवान को ही अपना पति बनाये। जीवों का कर्मानुसार सम्बन्ध-विच्छेद होता ही है। अतः अखण्ड सम्बन्ध न रहने से सौभाग्य एवं पातिव्रत्य अखण्ड नहीं रह सकता। अतएव अनन्त, अखण्ड, नित्य, सहज सम्बन्धी भगवान ही सबके मुख्य पति हैं, उन्हीं से सम्बन्ध जोड़ना मुख्य है। दूसरे पति तो उसी मुख्य पति की प्रतिमा हैं, मुख्य परमपति की प्राप्ति में प्रतिमा की गौणता होनी स्वाभाविकी है। जैसे शालग्रामप्रतिमापूजन मुख्य-विष्णुप्राप्ति का साधन है, उसी तरह लौकिक पति का पूजन मुख्य पति भगवान की प्राप्ति का साधन है। तभी कन्यादान का संकल्प इस भाव से होता है कि “विष्णुरूपाय वराय लक्ष्मीरूपामिमां कन्यामंह संप्रददे।” इसीलिये बड़ी श्रद्धा से साधन का आदर करना ही चाहिये। अज्ञानियों की दृष्टि से व्यभिचारिणी किन्तु परम पतिव्रता व्रजांगनाओं की मुख्य परमपति भगवान में अद्भुत निष्ठा देखकर ही अरुन्धती प्रभूति सतीवृन्द उनके लिये श्रद्धा से शिर झुका देती है। “श्रद्धारज्यदरुन्धतीमुखसतीवृन्देन वन्धे हि ताः।” किसी समय रासक्रीड़ा करते-करते श्रीकृष्ण लीलाविशेषार्थ किसी निकुन्ज में छिप गये। जब अन्वेषण करती हुई व्रजांगनाएँ वहाँ पहुँची तो छिपने के ही भाव से श्रीकृष्ण ने श्रीमन्नारायण का रूप धारण कर लिया, परन्तु श्रीमन्नारायण के अद्भुत ऐश्वर्य-सौन्दर्य और माधुर्यपूर्ण रूप व्रजांगनाओं का आकर्षण नहीं हुआ। वे श्रद्धा-भक्ति से भगवान का प्रणाम कर कहने लगीं- “हे भगवन! आप कृपा कर हमारे मनमोहन श्यामसुन्दर श्रीव्रजेन्द्रनन्दन से हमको मिला दो।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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