भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
ऐसा कहकर सब प्रेमसागर में निमग्न हो गयीं। प्रियतम के प्रेमालाप में मनोलोप हो गया, बाह्य दृष्टि से परस्पर एक दूसरी को देखती हुई कहती हैं, “अयि कमलेक्षणे! श्यामसुन्दर तुम्हें बुलाते हैं।” दूसरी कहती है, “अयि सुधामुखी! तुम्हीं जाओ, इन्हें सुधा पान करा दो।” इस तरह परस्पर परिहास करती रहीं, निकली नहीं। श्रीकृष्ण के रसमय रहस्य वचनों को सुनकर कुमारिकाएँ रसाविष्ट हो गयीं। उसी स्थिति में उन्हें आन्तर दृष्टि से ही श्रीकृष्ण सम्बन्ध प्राप्त हुआ। बाह्यज्ञान होने पर, लज्जित होकर, प्रत्यक्ष के समान श्रीकृष्ण सम्बन्ध मानकर, संवादार्थ अन्योऽन्य का वीक्षण करने लगीं। अन्योऽन्य का ज्ञान न होने से कौतुकमय रस का आस्वादन करती हुई हँसने लगीं, और कहने लगीं, “अये सखि! जब प्रियतम श्रीकृष्ण के बिना रह सकना असम्भव ही है, तब फिर मनमोहन की ही रुचि का पालन करो। लज्जा को जलांजलि दो”, बस हाथों से अंगों का आच्छादन करके निकलीं। प्रीति की यही विशेषता है कि प्रियतम के सम्बन्ध से तीव्रातितीव्र दुःख भी परमानन्दमय होकर प्रतीत हों। वेश्या को नहीं, किन्तु एक साध्वी सती पतिव्रता के लिये सर्वाधिक कष्ट लज्जात्याग में ही होता है। प्राणों का परित्याग उनके लिये सरल है, परन्तु लज्जात्याग अतिदुष्कर है, किन्तु श्रीकृष्णप्रेम में, श्रीकृष्ण सम्बन्ध से, उसको भी वे सहन कर सकीं। महानुभावों ने इस सम्बन्ध में भी उनका महत्त्व गाया है।
श्रीउद्धव जी का कहना है, "अहो! इन श्रीव्रजांगनाओं के पाद-पंकज-रजसेवन करने वाले वृन्दावन के गुल्म, लता, औषधियों में कुछ मैं भी हो जाऊँ। क्योंकि, इन्होंने दुस्त्यज स्वजन एवं आर्यपथ को छोड़कर श्रुतिविमृग्य मुकुन्द पदवी का सेवन किया।" यहाँ साफ विदित होता है कि स्वैरिणी वेश्याओं के समान इनके लिये लज्जा या आर्यधर्म का त्याग सुगम नहीं था; किन्तु जैसे दुर्व्यसनी को दुर्व्यसन दुस्त्यज होता है, माता, पिता, गुरुजनों एवं शास्त्रों के उपदेश और अपने चाहने पर भी नहीं छूटता, वैसे ही सुदृढ़ व्रजांगनाओं की आर्य धर्मनिष्ठा थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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