भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
कुछ महानुभावों का कहना है कि नन्द व्रजकुमारिकाओं के कात्यायिनी अर्चन व्रत में चार दोष आ गये। भले ही वे भक्तिमार्ग के गुण हों, परन्तु कर्ममार्ग में तो दोष ही हैं। कालिन्दी स्नान में मौन और सवस्त्र होना आवश्यक था, परन्तु ये वस्त्र निक्षेपपूर्वक कृष्णयश गान करती हुई स्नान में प्रवृत्त हुईं। अतः मौन का त्याग और वस्त्र का त्याग ये दो दोष हुए, और व्रत-नियम में रहकर क्रीड़ा और देहविस्मरण भी दोष ही हैं। कर्म में किसी प्रकार की व्यंग्यता न आये, सम्यक् रूप से उसका अनुष्ठान हो, इसलिये ही कर्म फलनिरपेक्ष एवं असक्त होकर, कर्मों के अनुष्ठान का आदेश किया जाता है। क्योंकि ऐसा होन से कर्तव्यबुद्धया तत्त्परता से कर्मों का ही अनुष्ठान किया जाता है, फलापेक्षया उसमें गौणता बुद्धि या असावधानी नही आने पाती। कर्मफल की चिन्ता और आसक्ति से साधक को कर्मानुष्ठान में उचित सावधानी नहीं रह जाती। ऐसी स्थिति में कर्म को व्यंग्यता अवश्य हो जाती है। लीलावती, कलावती को सत्यनाराण व्रत कथा में प्रीति एवं विश्वास था, परन्तु जब उन्होंने पति और जामाता का आगमन सुना, तब लीलावती पति-सम्मिलन की उत्सुकतावश पुत्री को पूजा में लगाकर, स्वयं पूजा छोड़कर पति से मिलने चली गयी। पुत्री भी उसी उत्सुकता के कारण पूजा समाप्त कर बिना प्रसाद ग्रहण किये ही चली गयी। बस, व्रत में व्यंग्यता आ गयी, अन्ततोगत्वा फिर विघ्न भी खड़ा हो गया। इधर व्रजकुमारिकाओं को भी व्रत-फल, श्रीकृष्ण-प्राप्ति की उत्सुकता से व्रत के नियमों का स्मरण नहीं रहा। जन्मजन्मान्तरों, कल्पकल्पान्तरों की श्रीकृष्ण-सम्मिलनवान्छा का प्रवाह कैसे रोका जाय? श्रीकृष्ण प्रेमोन्माद में उन्हें कर्म और उसके नियम भूल गये। वे विभोर होकर वस्त्र और मौन दोनों को त्यागकर, श्रीकृष्ण यशगान करने लगी थीं। प्रेमोन्माद में ही जल-क्रीड़ा करती-करती, देह, दैहिक समस्त प्रपंच को भूल गई थीं। यह सब कर्ममार्ग में अवश्य दोष हैं, परन्तु प्रेममार्ग में तो यही सब गुण हैं। प्रेमी तो उसी पूजा को सफल और सांग मानते हैं, जिसमें आराध्य देव की स्मृति एवं तन्मयता में पूजा और उसकी सामग्री विस्मृत हो जाय। हाँ, तो भक्ति सिद्धान्त के गुणों से प्रसन्न होकर, भगवान कर्ममार्ग के दोषों से उत्पन्न हुई व्यंग्यता को दूर करने के लिये प्रकट हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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