भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
इस तरह नन्दव्रजकुमारिका श्रीकृष्ण में आसक्त मन होकर भद्रकाली भगवती की अर्चना किया करती थीं। उष:काल में ही उठकर अपने-अपने वर्गों से आहूत होकर अन्योऽन्यावद्ध बाहु होकर, उच्चैः स्वर से श्रीकृष्ण का ही गायन करती हुई प्रतिदिन कालिन्दी नहाने जाती थीं। थोड़े ही काल के आराधन से उनका मन श्रीकृष्ण में आकर्षित हो गया। व्रत का फल यह भी है, परन्तु अभी महाफल अवशिष्ट ही है। अस्तु, पूर्णमासी के दिन नित्य प्रति के समान ही तीर पर आकर, पूर्ववत वस्त्रों को खोलकर, श्रीकृष्ण के मंगलमय यश का गायन करती हुई प्रसन्नता से जलविहार करने लगीं। व्रत की पूर्ति का दिन था, प्रसन्नता से देहानुसंधानशून्य होकर, मानस, वाचिक, कायिक तन्मयता से श्रीकृष्ण यश गाती हुई विहार करने लगीं। कुछ भावुकों का कहना है कि रास-क्रीड़ा के समान अन्योऽन्य बाहुबद्ध होकर गोपांगनागण परिवेष्टित श्रीकृष्ण को गाती हुई कालिन्दी में विहार करने लगीं। कालिन्दी के अवगाहन से सर्वप्रकार के दोष दूर होते हैं। ‘कलिं द्यति खण्डयति इति कलिन्दः, तस्यापत्यं कन्या कालिन्दी’। इस व्युत्पत्ति के अनुसार कलिन्द पर्वत ही कलि दोष को दूर करने वाला है। उसकी कन्या में भी वे ही सब गुण हैं। अतः कालिन्दी श्रीयमुना जी का सेवन करने से उन गोपकुमारिकाओं का परस्पर कलह, भगवान के साथ कलह, और कलिकाल के दोष दूर होंगे। पुनः अत्यन्त शुद्ध होने पर श्रीकृष्णप्राप्ति की योग्यता सम्पन्न होगी। भावुकों का कहना है कि श्रीयमुना में स्नान करते ही प्राणी को श्रीकृष्ण सम्मिलन की योग्यता हो जाती है। प्राकृत स्त्रीत्व-पुंस्त्व भाव वर्जित होकर, शुद्ध गोपांगना भाव की प्राप्ति ही रसोपासना का मूल है। वेदान्तियों के समान ही रसिकों के यहाँ भी पहले ‘त्वं’ पदार्थ का शोधन अपेक्षित होता है। स्वरूप निष्ठा के अनन्तर ही निखिल रसामृतमूर्ति श्रीकृष्ण की रसोपासना का अधिकार प्राप्त होता है। यह सब भाव बहुकाल के परिश्रम से सिद्ध होता है, परन्तु श्रीकालिन्दी के सेवन से सहज ही में यह भाव मिल जाता है। योगेश्वरेश्वर भगवान श्रीकृष्ण व्रजांगनाओं के व्रत का अभिप्राय जानकर, उस कर्म की सिद्धि के लिये ही अपने दाम, सुदाम, वसुदाम, किंकिणी, गन्ध-पुष्पकादि परम अन्तरंग सखाओं से परिवृत होकर वहाँ गये। ये सखा श्रीकृष्ण के साक्षात अन्तःकरण ही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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