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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शिवलिंगोपासना-रहस्य
गौर तेज राधिका में श्यामल तेज कृष्ण से गर्भाधान होने पर महत्त्वप्रधान हिरण्यगर्भ उत्पन्न हुए। यह भी प्रकृति-पुरुष के संयोग से महतत्त्वादि प्रपंच की उत्पत्तिरूपक कही गयी है। इसी को यों भी समझ सकते हैं- जाग्रत, स्वप्न के अभिमानी, विश्व, तैजस और विराट हिरण्यगर्भ ये सभी सावयव हैं। किन्तु सर्व-लयाधिकरण ईश्वर निरवयव है, वह माया से आवृत होता है। अविद्या के भीतर ही रहने वाला तो जीव है, परन्तु जो ‘अत्यतिष्ठद्दशांगुलम्’ के सिद्धान्तानुसार अविद्या का अतिक्रमण कर स्थित है, वही ईश्वर है। निरावरण तत्त्व शिव है। ईश्वरभाव माया से आवृत और शिवभाव अनावृत है। माया जलहरी है और उसके भीतर आवृत ईश्वर है, जलहरी के बाहर निकला हुआ शिवलिंग निरावरण ईश्वर है। जिसका पृथक-पृथक अंग न व्यक्त हो, वह पिण्ड के ही रूप में रहेगा। सुषुप्ति में प्रतीयमान विशिष्ट आत्मभाव का सूचक पिण्डी है। शिव के सम्बन्धमात्र से प्रकृति स्वयं विकाररूप में प्रवाहित होती है। इसलिये अर्धा गोल नहीं, किन्तु दीर्घ होता है। लिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु, ऊपर प्रणवात्मक शंकर हैं। लिंग महेश्वर, अर्घा महादेवी हैं-
चैतन्यरूप लिंग सत्ता और प्रकृति से ब्रह्माण्ड बना। उनके सहारे ही वह लय की ओर जा सकेगा। अर्थात शुद्ध मोक्ष के लिये उसी के द्वारा पहुँचना होगा। यद्वा प्रणव में अकार शिवलिंग है, उकार जलहरी है, मकार शिवशक्ति का सम्मिलित रूप समझ लिया जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ लिंगपुराण
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