भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
वे अरुणोदय के समय ही कालिन्दी के निर्मल जल में स्नान करके जल के समीप में ही देवी की सिकता (बालुका) मयी मूर्ति बनाकर पूजा करती थीं। यौवन संचार के पहले ही श्रीकृष्ण-प्रेम में मोहित होकर, वे उन्हें पति चाहने लगी थीं। महानुभावों ने कहा कि व्रजकुमारिकाओं के अंगों में अनंग का संचार तो अवस्थाक्रम से ही हुआ, परन्तु सांग श्रीश्यामसुन्दर तो बहुत पहले ही उनके अंग ही क्या, अन्तरात्मा, अन्तःकरण, प्राण, इन्द्रियों एवं रोम-रोम में प्रविष्ट हो गये थे। वे सुगन्धित पुष्पों, बलियों, धूप, दीप एवं प्रवाल, फल, तण्डुल आदि नाना प्रकार के उच्चावच उपहारों से श्रीकात्यायिनी का पूजन करती थीं। कभी-कभी प्रेम में पूजा क्रम विस्मृत हो जाता था। श्रीकात्यायिनी की प्रार्थना करती हुई कहती थीं- हे कात्यायिनी! आप कात्यायन मुनिवंशप्रकाशक होने से परम धर्मदात्री हो। हे महायोगिनी! आप अघटित घटना पटीयसी हो, अतः हमारे लिये दुर्घट श्रीकृष्ण वर संमिलन भी आपकी कृपा से संगत होगा। हे अम्ब! आप ही अधीश्वरी सर्वोत्कृष्ट स्वामिनी हो। आपको छोड़कर हम सब किसकी शरण जायँ। दे देवि! श्रीमन्नन्दगोप राजकुमार को ही हमारा पति बनाओ। उनकी आराधना से भी यह सिद्ध हो सकता है, किन्तु उनके लिये उन्हीं से प्रार्थना करनी रसानुकूल नहीं है। आपकी प्रसन्नता के लिये हम आपको नमस्कार करती हैं।”
परम प्रेमोल्लासवश श्रीव्रजकुमारिकाएँ श्रीदेवी की पूजा में प्रवृत्त हुई हैं, इसमें अनन्यता का व्याघात नहीं होता। भगवत् प्रेम गन्ध के सम्बन्धी गन्धवाह वायु को भी प्रेमी स्पर्श करते हैं, शुद्ध प्रेम ही परम पुरुषार्थ है, अन्यान्य देवतोपासना आदि तो साधन मात्र है। परम साध्यस्वरूप प्रेम के प्रसंग में वह गौण हो जाता है। प्रेम में माधुर्य भाव की ही प्रधानता रहती है। वहाँ ऐश्वर्य की स्फूर्ति नहीं होती। अनन्य भक्ति बिना ऐश्वर्यस्फूर्ति नहीं होती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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