भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
जाति घटत्वादि को कहते हैं, जिसे घट भाव भी कहा जा सकता है, घट कार्य्य है, कार्य का भाव कारण से व्यतिरिक्त नहीं हुआ करता। समस्त कार्यों का भाव कारण में ही पर्य्यवसित होता है, अतः समस्त शब्दों की वाच्यता का पर्य्यवसान कारण परम्परा क्रम से सन्मात्र में ही होता है। इसलिये सारे शब्दों का वाच्य परमात्मा ही है। इस प्रकार वाच्य-वाचक का अभेद है, और समस्त श्रुतियाँ तत्पदार्थ से अभिन्न ही हैं। श्रुतियाँ दो प्रकार की हैं, अन्यपरा और अनन्यपरा। अनन्यपरा श्रुतियाँ वे हैं जो साक्षात रूप से परब्रह्म में पर्यवसित होती हैं, जैसे- “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म।” तथा अन्यपरा श्रुतियाँ वे हैं, जिनका साक्षात तात्पर्य तो अन्य देवतादि में है, किन्तु परम्परा से उनका महातात्पर्य परब्रह्म में ही होता है। जैसे- “इन्द्रोयातोऽवसि तस्य राजा” इत्यादि। इन्हें ही ऊढ़ा और अनूढ़ा अथवा अनन्यपूर्विका भी कह सकते हैं। अर्थात एक वे गोपियाँ जो केवल कृष्णपरायण हैं, और दूसरी वे जो श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य पुरुषों के साथ विवाही गयी हैं। इनके ये दो भेद भी प्रतीतिमात्र के लिये हैं, वास्तविक नहीं। वरुणादि देवताओं में श्रुतियों का तात्पर्य तभी तक जान पड़ता है, जब तक “सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति” इस वाक्य के अनुसार उनका महातात्पर्य एक मात्र परब्रह्म में ही नहीं जान पड़ता है। वास्तव में तो जिस प्रकार तरंग समुद्र से भिन्न नहीं हैं, और घटादि मृत्तिका से भिन्न नहीं हैं, उसी प्रकार उपक्रम, उपसंहारादि षड्विध लिंग से समस्त श्रुतियों का तात्पर्य ब्रह्म में ही है। किन्तु फिर भी लीला विशेष के विकासार्थ वस्तुतः अनन्यपरा श्रुतियों में भी अन्यपरात्व की प्रतीति होती है। यहाँ संदेह होता है कि श्रीराधिका प्रभृति व्रजांगनाएँ परमात्मा समझी जाती हैं। इतना ही नहीं, बल्कि श्रीव्रजांगनाओं को ही श्रीकृष्ण-प्रेयसी कहा गया है- “यद्वान्छया श्रीर्ललनाऽचरत्तपः।” जिन श्रीकृष्ण पाद-पंकज-रज की कामना से श्रीललना तपस्या करती हैं- “नायंश्रियोऽगजनितान्तरतेः प्रसादः स्वर्योषितां नलिनगन्धरुचां कृतोऽन्याः। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज