भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शिव से शिक्षा
भगवान शिव और अन्नपूर्णा अपने आप परम विरक्त रहकर संसार का सब ऐश्वर्य श्रीविष्णु और लक्ष्मी को अर्पण कर देते है। श्रीलक्ष्मी और विष्णु भी संसार के सभी कार्यों को सँभालने, सुधारने के लिये अपने आप ही अवतीर्ण होते हैं। गौरी-शंकर को कुछ भी परिश्रम न देकर आत्मानुसन्धान के लिये उन्हें निष्प्रपंच रहने देते हैं। ऐसे ही कुटुम्ब और समाज के सर्वमान्य पुरुषों को चाहिये कि योग्यतम कुटुम्बियों के हाथ समाज और कुटुम्ब को सब ऐश्वर्यं दे दें और उन योग्य अधिकारियें को चाहिये कि समाज के प्रत्येक कार्य-सम्पादन के लिये स्वयं ही अग्रसर हों, वृद्धों को निष्प्रपंच होकर आत्मानुसन्धान करने दें। महापार्थिवेश्वर हिमालय की महाशक्तिरूपा पुत्री का श्रीशिव के साथ परिणय होने से ही विश्व का कल्याण हो सकता है। किसी प्रकार की भी शक्ति क्यों न हो, जब तक वह धर्म से परिणीत - संयुक्त - नहीं होती, तब तक कल्याणकारिणी नहीं होती। परन्तु आसुरी शक्ति तो तपस्या चाहती ही नहीं, फिर उसे शिव या धर्म कैसे मिलेंगे? धर्मसम्बन्ध के बिना शक्ति आसुरी होकर अवश्य ही संहार का हेतु बनेगी। प्रकृति माता की यह प्रतिज्ञा है कि -
अर्थात संघर्ष में जो मुझे जीत लेगा, जो मेरे दर्प को चूर्ण कर देगा और जो मेरे समान या अधिक बल का होगा, वही मेरा पति होगा। यह स्पष्ट है कि रक्तबीज, शुम्भ, निशुम्भ आदि कोई भी दैत्य, दानव प्रकृति-विजेता नहीं हुए। किन्तु सब प्रकृति से पराजित, प्रकृति के अंश काम, क्रोध, लोभ, मोह, दर्प आदि से पद-पद पर भग्न मनोरथ होते रहे है। हाँ, गुणातीत प्रकृतिपार भगवान शिव ही प्रकृति को जीतते हैं। तभी तो प्रकतिमाता ने उन्हें ही अपना पति बनाया। यही क्यों, कन्दर्प-विजयी शिव की प्राप्ति के लिये तो उन्होंने घोर तपस्या भी की। |
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