भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री शिवतत्त्व
ठीक ही है, वेदान्त-सिद्वान्तानुसार शब्द से ही तत्त्व का साक्षात्कार होता है। उपनिषदों, महावाक्यों एवं भगवत्स्वरूप-बोधक प्रणवादि नामों से तत्त्व साक्षात्कार होता है। तत्त्व साक्षात्कार होते ही कल्पित संसार मिट जाता है। स्वाभाविक पारमार्थिक ब्रह्मानन्दरसामृत मुक्ति मिल जाती है। जैसे अमृतसागर में क्षार सागर की कल्पना भ्रान्ति से हीती है, वैसे ही परमानन्द-रसामृतमूर्ति शिवतत्त्व में भवसागर की भ्रान्ति होती है। अधिष्ठान के साक्षात्कार से कल्पना मिट जाती है। यह ‘‘नाम लेत भवसिन्धु सुखाही’’ का आशय है। दूसरी दृष्टि से जैसे तृण, वीरुध, औषधों के विचित्र सम्प्रयोग-विप्रयोग से विचित्र गुणों और दोषों का उद्भव-अभिभव होता है, वैसे ही वर्णों के विचित्र सम्प्रयोग-विप्रयोग में विचित्र शक्तियाँ होती हैं। ‘क’ ‘ख’ ‘ग’ ‘घ’ आदि वर्णों के ही जोड़ तोड़ से विचित्र वाङ्मय शास्त्र बने हैं। ‘राजा’ ‘जारा’, ‘नदी’ ‘दीन’ यह सब अर्थ-विपरिणाम वर्णों के आनुपूर्वी ही भेद से होते हैं। उन्हीं वर्णों के ऐसे भी जोड़-तोड़ होते हैं, जिनसे घोर-से-घोर शत्रु वश में हो जाते हैं। सर्प, वृश्चिक, पिशाच, राक्षस, देवता वश में हो जाते हैं। ऐसे विचित्र वर्णविन्यास होते हैं, जिनका मूल्य संसार में कुछ भी नहीं है। विद्वानो, कवियों, तार्किकों के वर्णविन्यास विशेष में ही खूबी है, किन्ही वर्णविन्यासों से परम मित्र भी शत्रु हो जाते हैं। |
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