भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
प्रियतम का अधिकाधिक स्मरण होने से उसमें आसक्ति होकर अन्य का विस्मरण होता है, वही ‘आसक्तिनिरोध’ कहा गया है। यहाँ गोपांगनाओं के आसक्तिनिरोध का वर्णन हे। आगे चलकर उस आसक्ति के अधिकाधिक गाढ़ होने से उसका छूटना असम्भव हो जाता है। अतः वह व्यसनरूप हो जाता है। इसीलिये वह ‘व्यसननिरोध’ कहा जाता है। इसका वर्णन रासपंचाध्यायी युगल गीत में है। सर्वविस्मरणपूर्वक निरतिशय निरुपाधिक परम प्रेमास्पद प्रियतम श्रीकृष्ण स्वरूप में श्रीव्रजांगनाओं की तन्मयता ही ‘आसक्तिनिरोध’ है। जितनी अधिक तन्मयता, उतना ही अधिक विश्वविस्मरण होता है। इस दशविध पुराण लक्षणान्तर्गत निरोध का लक्षण, अपनी समस्त शक्तियों के सहित अखण्ड, अनन्त आत्मस्वरूप भगवान का शयन कहा गया है- “निरोधोऽस्यानुशयनं आत्मनः सह शक्तिभिः।” इस मत में महाप्रलय ही निरोध है। सृष्टि काल में शक्तियाँ कार्यरूप में परिणत होती हैं, और प्रलय काल में समस्त कार्य स्वकारणभूत शक्तियों में लीन हो जाता है, और भगवान स्वस्वरूपभूत उन शक्तियों को साथ में लेकर उसे अपने स्वरूप में लीन करके शयन करते हैं। जैसे अंकुर, नाल, स्कन्ध, शाखा, उपशाखा, पत्र, पुष्प, फल, सौगन्ध्य, सौरस्यादि के उत्पादनानुकूल समस्त शक्तियाँ बीज में निहित होती हैं, वैसे ही परब्रह्म अखिल ब्रह्माण्डोत्पादिनी शक्तियों को साथ लेकर प्रलयावस्था में शयन करते हैं। यहाँ ब्रह्म का शयन वास्तविक न होकर सुप्तशक्तियों के कारण औपचारिक है, क्योंकि ‘भागवत’ में ही अन्यत्र ब्रह्म को ‘सुप्तशक्तिरसुप्तदृक्’ कहा गया है। ‘सुप्ताः शक्तयो यत्र असौ सुप्तशक्तिः’ इस तरह प्रलयावस्था में शक्तियाँ विद्यमान होती हुई भी कार्यकरणक्षम नहीं रहतीं। ब्रह्म तो अखण्ड, अनन्त, स्वप्रकाश बोध स्वरूप होने से ‘असुप्तदृक्’ है। उपनिषदों ने भी कहा है कि ‘द्रष्टा-सर्वभासक की दृष्टि का स्वरूपभूत अखण्ड भान का लोप कभी नहीं होता। हाँ, भगवान भी महाप्रलय काल में प्रपंचोत्पादनादि व्यापार से विवर्जित होने से शयन से-सोते हुए से-प्रतीत होते हैं। उस अखण्ड अनन्तबोध का ज्ञान का भी अस्त-उदय नहीं होता, वह सदा ही एकरस बना रहता है- “नास्तमेति न चोदेति।” घटादि की उत्पत्ति के पूर्व उनका ज्ञान रहता है, फिर तदनुसार कुलाल घटादि को उत्पन्न करता है। “आसीज्ज्ञानमथोह्यर्थ एकमेवाविकल्पितम्।” अर्थात प्रलयावस्था में शुद्ध ज्ञान और प्रकृति-प्रपंचरूप अर्थ दोनों मिले हुए ही थे। यहाँ ज्ञान पद से घटादि ज्ञान नहीं, अपितु “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” यह ज्ञान लिया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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