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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
किरातिनियों का स्मररोग
उत्कट उत्कण्ठा से जब तीव्र ताप होगा, तभी श्रीकृष्ण परब्रह्म का दर्शन हो सकेगा। नहीं तो कल्प-कल्पान्तरों से, युग-युगान्तरों से जीव भगवद्विमुख है, पर उसे कहाँ तीव्र वियोग ताप होता है? अतः उत्कट उत्कण्ठा की ही प्रथम अपेक्षा है। उसका भी मूल वहीं कुंकुम है। वह कुंकुम साधारण कुंकुम नहीं, अपितु प्रथव वह श्रीवृषभानुनन्दिनी के उरोज में संलग्न था, फिर वहीं से श्रीव्रजेन्द्रनन्दन श्यामसुन्दर के श्रीचरणों में संपृक्त हुआ। उसी के दर्शन से पुलिन्दियों को श्रीकृष्ण दर्शन की उत्कट उत्कण्ठा हुई और उसके पूर्ण न होने के कारण उत्पन्न हुए तीव्रातितीव्र ताप से उनके हृदय में इतना अधिक दुःख का आविर्भाव हुआ कि अनेक कल्पों के दुःख उसमें समा गये और दग्ध हो गये। इनके साथ ही कुंकुम परंपरा से पूर्णतम पुरुषोत्तम के श्रीचरण सम्पर्क से इतना अधिक अनन्तानन्त गुणित आनन्द प्राप्त हुआ कि उससे वे पूर्ण हो गयीं, कृतकृत्य हो गयीं। श्रीमद्वल्लभाचार्य कहते हैं- उस कुंकुम के दर्शन से, उसके विलिम्पन से इन भिल्लिनियों में श्रीराधा-स्वरूप का अथवा श्रीलक्ष्मी जी-स्वरूप का प्रवेश हुआ। यह एक विलक्षण तत्त्व है; व्यापक वस्तु है। श्याम समुद्र में श्रीराधा, माधुर्याधिष्ठात्री महाशक्ति है। जब तत्त्वज्ञानी भी आत्माराम होते हैं, तब पूर्णतम पुरुषोत्तम का रमण बाह्य वस्तु में कैसे हो सकता है? उनका तो अपने में ही रमण बनता है। श्रीजानकी रमण, श्रीराधारमण, गिरा और अर्थ की तरह, जल और वीचि की तरह अभिन्न है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है- ‘‘गिरा अर्थ जल वीचि जिमि कहियत भिन्न न भिन्न। वन्दौ सीताराम पद।’’ महाकवि कालिदास ने भी श्रीपार्वतीरमण को वाणी और अर्थ की तरह अभिन्न बतलाया है- ‘‘वागर्थाविव संपक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये। जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।।’’ श्रीजानकी, श्रीराधा, श्रीपार्वती आदि उस अखण्ड, अनन्त, अचिन्त्य, अव्यक्त, आनन्दसागर परब्रह्म की तरंग आदि की तरह निजी अभिन्न वस्तु हैं। इससे भी अन्तरंग भाव जल और उसके माधुर्य के अभेद का है। यों उस परम तत्त्व का अपने में ही रमण सम्भव है। इन किरातिनियों में कुंकुम सम्बन्ध से श्रीकृष्ण रूप का उदय हुआ। उससे उनमें वही अन्तरंगता आयी और उस दिव्य तत्त्व के रमण का अनुभव उन्हें हुआ। अतः उन्होंने ‘‘आधिं जुहुः’’ मानसी व्यथा को त्यागा और पूर्ण हो गयीं। जैसे प्रभु श्रीकृष्ण को मिले, वैसे ही किरातिनियों को भी मिले, क्योंकि ‘‘ज्ञान ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्यधिष्ठितम्’’ के अनुसार वह पूर्णतम तत्त्व सर्वत्र ही अव्याहत रूप से वर्तमान है। अतः दीन-हीन दशा में भी हताश होने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है उत्कट उत्कण्ठा से प्रभु स्मरण और प्रभु के साथ सम्बन्ध स्थापित करने की। फिर तो किरातिनियों की ही तरह सभी पूर्ण हो सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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