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इन्हीं भावों को लेकर गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ने रामायण किष्किन्धाकाण्ड में वर्षा के अन्त और शरद् के आगमन का वर्णन किया है-
- “दामिनि दमक रह न घन माहीं, खल कै प्रीति यथा थिर नाहीं।
- बरसहिं जलद भूमि नयिराये, जथा नवहिं बुध बिद्या पाये।
- भुमि परत भा डाबर पानी, जनु जीवहिं माया लपटानी।
- हरित भूमि तृन संकुल, समुझ परहि नहिं पंथ।
- जिमि पाखण्डी वाद ते, लुप्त होहिं सद्ग्रंथ।।
- दादुर धुनि चहुँ दिसा सुहाई, बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।
- नवपल्लव भये बिटप अनेका, साधक मन जस मिलें विवेका।
- अर्क जवास पात बिनु भयऊ, जस सुराज खल उद्यम गयऊ।
- ससि सम्पन्न सोह महि कैसी, उपकारी कै सम्पति जैसी।
- ऊसर बरसै तृन नहिं जामा, जिमि हरिजन हिय उपज न कामा।
- जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना, जिमि इन्द्रीगन उपजै ज्ञाना।
- कबहुँ दिवस महुँ निबिड़तम कबहुँक प्रगट पतंग।
- विनसइ उपजइ ज्ञान जिमि पाइ कुसंग सुसंग।।
- वर्षा विगत सरद ऋतु आई, लक्षिमन देखहु परम सुहाई।
- उदित अगस्त पंथ जल सोषा, जिमि लोभहिं सोखै संतोषा।
- सरिता सर निर्मल जल सोहा, संत हृदय जस गत मद मोहा।
- रस-रस सूख सरित सर पानी, ममता त्याग करहिं जिमि ज्ञानी।
- बिनु घन निरमल सोह अकासा, हरिजन इव परिहरि सब आशा।
- कहुँ कहुँ वृष्टि सरद ऋतु थोरी, कोउ कोउ पाव भगत जिमि मोरी।
- चले हरषि तजि नगर नृप, तापस बनिक भिखारि।
- जिमि हरि भगति पाइ श्रम, तजहि आश्रमी चारि।।”
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