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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीकृष्णजन्म और बालक्रीड़ा
सिद्ध, चारण आदि पवित्र मंत्रों से ब्रह्माण्डनायक प्रभु का स्तवन करने लगे, किन्नर, गन्धर्व गण जगत्पावन गुणों का गान करने लगे और विद्याधर, अप्सराओं के साथ प्रभु-प्रेम में निर्भर होकर नृत्य करने लगे। ऐसे सुयोग्य में देवरूपिणी देवकी में आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र ऐसे प्रकट हुए जैसे प्राचीदिक् में पूर्णचन्द्र। पूर्णिमा को छोड़कर अन्य तिथियों में ठीक पूर्वादिक् का सम्बन्ध न होने से चंद्रमा में पूर्णता नहीं होती। यही कारण है कि श्रीकृष्णचंद के पूर्ण प्रकाश के लिये देवकी देवी को प्राची दिक् बतलाया गया है- “देवक्यां देवरूपिण्यां ........ प्राच्यां दिशीन्दुरिव पुष्कलः।” श्रीगोस्वामी तुलसीदास जी ने भी आनंदवर्द्धन श्रीरामचन्द्र के पूर्णतम रूप में प्रकट होने के लिये श्रीकौशल्या माता को प्राची बतलाया है- “बन्दौ कौसल्या दिसि प्राची।” परन्तु यहाँ एक बात और है। अलौकिक अद्भुत आनंद-सुधासिन्धु-समुद्भूत, श्रीकृष्णचंद्र जैसे सकलंक लौकिक चन्द्र से विलक्षण हैं वैसे ही निर्मल-विशुद्ध-सत्त्वमयी देवकीरूपा प्राची भी प्राकृत प्राची से विलक्षण है। फिर जैसे सर्यकान्ता मणि पर ही सूर्य का पूर्णरूपेण प्राकट्य होता है, वैसे वेदान्तमहावाक्यजन्य ब्रह्माकाराकारित परमसत्त्वमयी मानसी वृत्ति पर ही पूर्णतम पुरुषोत्तम का प्राकट्य होता है। अतः यहाँ पर वही परम सत्त्व समूहाधिष्ठात्री महाशक्ति देवरूपिणी श्रीदेवकी हैं और उनमें पूर्णतम तत्त्व का ही आनन्दघन श्रीकृष्णचन्द्र रूप में प्राकट्य हुआ है। जन्म होने पर श्रीवसुदेव जी ने एक ऐसे अद्भुत बालक को देखा, जिसके कमलदल के समान लोचन हैं और जो अपनी चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुए हैं। उसका शरीर नव-नील-नीरद के समान परम सुभग सौन्दर्य सम्पन्न है और उस पर श्रीवत्स-चिह्नयुक्त कौस्तुभमणि तथा पीताम्बर विराज रहा है। परम-तेजोमय किरीट तथा कुण्डल की दिव्यदीप्ति से उसके सहस्रों कुन्तल (‘स्निग्ध सुचिक्कण-दीप्ति श्यामलअलकावली’) आलिंग्ति हैं। उनमें किरीट की दीप्ति से ऊर्ध्व और कुण्डलों की दीप्ति में निम्न भाग की अलकावली वैडूर्यमणि की तरह नानाछवियुक्त हो रही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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