भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
विभीषण-शरणागति
महर्षि आदिकवि भी यही कहते हैं कि जिसने स्नेहभरी दृष्टि से श्रीरामचन्द्र को नहीं देखा और श्रीरामचन्द्र ने अनुकम्पाभरी दृष्टि से जिसे नहीं देखा, वह सर्वलोक में निन्दित है और उसकी स्वात्मा भी उसकी विगर्हणा धिक्कार करती है- जैसे कमलनयन पुरुष के अतिशोभन नयन व्यर्थ हैं, यदि प्रभु के रूपदर्शन में उनका उपयोग न हुआ, वैसे ही ज्ञानी के भी प्रारब्ध भोगपर्यन्त अनिवार्य रूप से रहने वाले देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार आदि व्यर्थ और नीरस ही रहे। यदि उन सबका सदुपयोग प्रभु के सौन्दर्य-माधुर्य-सौरस्यामृत आदि के समास्वादन में न हुआ। इसीलिये श्रीव्रजांगनाओं ने भी कहा है कि नेत्रवालों के नेत्रादि करणग्रामों की सार्थकता और चरम फल यही है कि श्रीव्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र के अनुराग भरे कटाक्षपात से युक्त, वेणुचुम्बित, अमृतमय मुखचन्द्र के सौन्दर्य-माधुर्य्यमृत का निर्निमेष नयनों से पान किया जाय और घ्राण से सौगन्ध्यामृत का, त्वक् से सुस्पर्शामृत का आस्वादन किया जाय। अन्यथा इन करणग्रामों का होना बिल्कुल व्यर्थ है- “अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः।” इस प्रकार अन्तरात्मा, अन्तःकरण, प्राण, इन्द्रिय, देह तथा रोम-रोम को अपने दिव्य रस से सरस और मंगलमय बनाने के लिये भगवान का प्रादुर्भाव है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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