भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
विभीषण-शरणागति
इस तरह प्राणिमात्र बन्धन से छूटने तथा स्वतन्त्रता के लिये लालायित हैं। ऐसी स्थिति में कौन नास्तिक बन्धनमुक्ति और स्वतन्त्रता न चाहेगा? परन्तु स्वतन्त्रता के वास्तविक रूप का विवेचन करने से स्पष्ट होगा कि यह भी भगवान का स्वरूप है, क्योंकि बिना असंग सच्चिदानन्द को प्राप्त किये बन्धनमुक्ति एवं स्वतन्त्रता की कल्पना अत्यन्त ही निरालम्बन है। जब तक स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण देह का सम्बन्ध विद्यमान है, तब तक स्वतन्त्रता कैसी? भले ही कोई माता, पिता, गुरुजनों तथा वेदशास्त्र की आज्ञाओं को न माने और उनसे अपने को स्वतन्त्र मान ले, परन्तु जन्म, जरा, व्याधि, विपत्ति, दरिद्रता, मृत्यु आदि के परतन्त्र तो प्राणिमात्र को होना ही पड़ेगा, क्योंकि जब तक कुछ स्वतन्त्रता का त्याग कर शास्त्रों एवं गुरुजनों के परतन्त्र होकर कर्म, उपासना एवं ज्ञान द्वारा मल, विक्षेप, आवरण को दूर कर शरीरत्रयबन्धन किंव जीवभाव से मुक्त होकर निजी निर्विकार स्वरूप को न प्राप्त कर ले, तब तक पूर्ण स्वातन्त्र्य मिल नहीं सकता। इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि यह बन्धनमुक्ति और स्वातन्त्र्य भी सर्वोपाधिविनिर्मुक्त, असंग, अनन्त, स्वप्रकाश, प्रत्यगभिन्न, सच्चिदानन्द भगवान् का ही स्वरूप है। इसी तरह प्राणिमात्र को यह भी रुचि होती है कि सब कुछ हमारे अधीन हो और मैं स्वाधीन रहूँ। यहाँ तक कि माता-पिता, गुरुजनों के प्रति भी यही रुचि हो जाता है कि ये सब हमारी प्रार्थना मान लिया करें और सब तरह से मेरे अनुकूल रहें। यही स्थिति देवताओं के प्रति भी होती है। यह सभी भाव जीवभाव के रहते पूर्ण नहीं हो सकते। समस्त कल्पित पदार्थ कल्पना के अधिष्ठानभूत भगवान् के ही परतन्त्र हो सकते हैं। जब आस्तिक-नास्तिक सभी पूर्ण स्वातन्त्र्य, नियामकत्व, पूर्ण बोध, पूर्णानन्द, पूर्ण अबाध्यता या सत्ता के लिये व्यग्र तथा इनकी प्राप्ति के लिये जी-जान से प्रयत्न करते हैं, तब कौन कह सकता है कि अज्ञानी किंवा नास्तिक भी जिसकी प्राप्ति के लिये व्यग्र हैं, वह तत्त्व भक्तों और ज्ञानियों के ध्येय, ज्ञेय, परमाराध्य, परब्रह्म भगवान नहीं हैं, क्योंकि प्राणिमात्र के अन्तरात्मा भगवान ही हैं, फिर उनसे विमुख होकर निःसत्त्व, निःस्फूर्ति कौन होना चाहेगा? इसी आशय से श्रीवाल्मीकि जी की उक्ति है कि “लोके न हि स विद्यते यो न राममनुव्रतः।” लोक में कोई ऐसा हुआ नहीं, जो राम का अनुगामी न हो। निजी सर्वस्व के बिना किसी को भी कैसा विश्रान्ति? अत: तरंग की जैसे समुद्रानुगामिता है, ठीक वैसे ही प्राणिमात्र की भगवदनुगामिता है। भेद यह है कि ज्ञानी अपने प्रियतम को जानकर प्रेम करता है, दूसरे उसी के लिये व्यग्र होते हुए भी उसे नहीं जानते। अस्तु, स्वसम्बन्धित्वेन ज्ञानपूर्वक प्रभु को ही “गतिर्भर्त्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्” जानकर उनसे प्रेम करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज