विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरामभद्र का ध्यान
भावुकों ने भगवान को श्रृंगार-रससार-सागर आनन्द-रससार-सागर किंवा पूर्णानुराग-रससार-सागर से समुद्भूत निर्मल निष्कलंक लोकोत्तर चन्द्रमा कहा है। भावुकों ने मधुरता के लिये अनन्तकोटि ब्रह्माण्डान्तर्गत आनन्दबिन्दु के उद्गम-स्थान अचिन्त्य, अनन्त, परमानन्द-सुधासार-सरोवर-समुद्भूत पंकज का उपमान युक्त कहा है क्योंकि जैसे क्षीर-सागर का पंकक्षीरसारनवनीत होता है, वैसे पूर्णानुराग-रस-सार सरोवर में पंक उसका सार ही होगा और पंकज उसका भी सार होगा। माधुर्याधिष्ठात्री प्रभु की हृदयेश्वरी के सम्बन्ध में महानुभावों ने कहा है कि यदि छविसुधापयोनिधि हो, उसमें निमग्न परमरूपमय कच्छप हो, एवं उसी परम रूप के आश्रित श्रृंगारमय मन्दर हो, शोभामयी रज्जु हो, और इन सामग्रियों से युक्त साक्षात लोक-विलक्षण मन्मथ अपने करकमलों से मन्थन करे तो फिर उसमें से जो सुन्दरतासुखमूलमयी लक्ष्मी निकले वही कथंचित् प्रभु की हृदयेश्वरी का उपमान हो सकती है। अथवा सुषमा-कामधेनु से श्रृंगार-रससार दुग्ध को दुहकर कामदेव ने अपने दिव्य करकमलों से अमृतमय दही जमाया हो और उसे मन्थन करने पर जो नवनीत निकले उसी से श्रीजनकनन्दिनी और श्रीरामचन्द्र जी को रचा गया है। भाल पर सहस्रों सूर्यों की दिव्य दीप्तियों का तिरस्कार करने वाला सुन्दर मुकुट शोभित हो रहा है। उसमें नाना प्रकार के नील, पीत, हरित परम प्रकाशमय मणि और मुक्ताएँ लगी हैं। मोतियों को मनोहर लड़ियाँ सुन्दर रूप में लटक रही हैं। ऊपर को स्निग्ध, सचिक्कण, श्यामल अलकावलियाँ मुकुट की दिव्यदीप्ति से वैदूर्य के समान नाना छवि से परिप्लुत हो रही है। कपोल प्रान्त के स्निग्ध श्यामल कुटिल कुन्तल अति दिव्य कुण्डलों की दीप्ति से देदीप्यमान हो रहे हैं। महानुभावों का कहना है कि प्रभु के अमृतमय मुखचन्द्र के समीप दोनों कुण्डल तथा दिव्य किरीट ने नील और लाल रत्नों के साथ वे श्यामल स्निग्ध केश-समूह ऐसे शोभित होते हैं, जैसे अन्धकार-सार-समूह शुक्र, बृहस्पति एवं भौम और शनि को आगे लेकर चन्द्रमा से वैर मिटाकर मिलने चला हो। यहाँ दोनों कुण्डल शुक्र, बृहस्पति के समान, नील तथा रक्त रत्न शनि एवं मंगल के समान और केश अन्धकार-सार के समान हैं। मुखचन्द्र की दिव्य द्युति से कुण्डल और मुकुट जगमगा रहे हैं। मुकुट तथा कुण्डलों को आभा मुखचन्द्र पर शोभित हो रही है। भुजमूल तक लम्बायमान मयूर के आकार-वाले कल्कुण्डल अद्भुत शोभा बढ़ा रहे हैं। कुण्डलों की आभा कुटिल कुन्तलों पर बड़ी सुहावनी लगती है, मानों दो कामदेव हर के डर से प्रभु के कानों में लगाकर मेरु की बात कर रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज