भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरामजन्म-रहस्य
शोक, मोह या हर्ष-विशेष में शून्यता या स्तब्धता के समय ‘जाग्रत् सुषुप्ति’ एवं जाग्रत् काल में ही निष्प्रपंच ब्रह्म-दर्शन-काल में ‘जाग्रत् तुरीय’ कहा जाता है। इसी तरह स्वप्न में स्पष्ट व्यवहार ‘स्वप्न जागर’, स्वप्न में स्वप्न ‘स्वप्न स्वप्न’ और स्वप्न में सुषुप्ति ‘स्वप्न सुषुप्ति’ और स्वाप्निक ब्रह्मानुभूति ‘स्वप्न तुरीय’ है। सुषुप्ति में भी सात्त्विकी, राजसी और तामसी भेद से ‘सुषुप्ति जागर’, ‘सुषुप्ति स्वप्न’ और ‘सुषुप्ति सुषुप्ति’ होती है। निद्रा के प्रभाव से विश्व-विस्मरण-काल में अभ्यासियों को निष्प्रपंच ब्रह्म-दर्शन ही ‘सुषुप्ति तुरीय’ है। स्थूल प्रपंचभासक सर्वानुस्यूत (ओत) आत्मा ‘तुरीय विराट्’ है और सूक्ष्म प्रपंच-भासक ‘अनुज्ञा आत्मा’ तुरीय हिरण्यगर्भ है। इसी तरह कारण-भासक अनुज्ञाता आत्मा ‘तुरीय अव्याकृत’ है और सर्वभास्यादि प्रपंच-वर्जित अविकल्प आत्मा ‘तुरीय तुरीय’ है। इस पक्ष में ‘तुरीय विराट्’ शत्रुघ्न, ‘तुरीय हिरण्यगर्भ’ लक्ष्मण, ‘तुरीय अव्याकृत’ भरत और ‘तुरीय तुरीय’ श्रीमद्राघवेन्द्र रामचन्द्र रूप में प्रकट होते हैं और उनकी माधुर्याधिष्ठात्री महाशक्ति, श्रीजनक-नन्दिनी रूप में प्रकट होती है। सर्वंथाऽपि पूर्णतम पुरुषोत्तम वेदान्तवेद्य भगवान का ही श्रीरामचन्द्र रूप में प्राकट्य होता है तभी उनके दर्शन, स्पर्शन, श्रवण, अनुगमन मात्र से प्राणियों की परमगति हो जाती है- “स यैः स्पृष्टोऽभिदृष्टो वा, संविष्टोऽनुगतोऽपि वा। जो परमतत्त्व विषय, करण, देवताओं तथा जीव को भी सत्ता स्फूर्ति-प्रदान करने वाला है, वही श्रीरामचन्द्र रूप में प्रकट होता है। “विषय करन सुर जीव समेता। सकल एक सन एक सचेता।। समष्टि-व्यष्टि, स्थूल-सूक्ष्म, कारण समस्त प्रपंचमय क्षेत्र के कूटस्थ निर्विकार भासक ही राम हैं- “जगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज