भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निर्बल का बल
सचमुच आज भारत की यही अन्तिम दशा है। न वह कृतकृत्य है, न निष्काम एवं विरक्त। वह आर्त्त एवं अर्थार्थी होकर भी आश्रय एवं साधनविहीन है। बौद्धबल, बाहुबल, सैनिकबल से रहित निःसहाय है। अवसर आने पर उसे लाठी भी रखने का अधिकार नहीं, सैनिक संघटन की कौन कहे, वह स्वयंसेवक-संघटन में भी पूर्ण स्वतन्त्र नहीं है। अस्त्र-शस्त्र शून्य वह दूसरे राष्ट्रों से अपनी रक्षा के लिये सन्धि भी नहीं कर सकता। संघटन के लिये प्रयत्न करते हुए भी पग-पग पर विघटन दृष्टिगोचर होता है। हिन्दू-मुसलमान के अतिरिक्त शैव-वैष्णव एवं वैष्णव-वैष्णव ही परस्पर कटकर मर सकते हैं। यदि कथंचित धरना आदि अशास्त्रीय मार्ग से कुछ मिल भी जाय तो वह उसकी रक्षा भी नहीं कर सकता। इतने पर भी उसमें धर्म और भगवान से विश्वास उठ चला है-
जहाँ अर्जुन ऐसे साधनसम्पन्न योद्धा के लिये भी “सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर” का आदेश था, वहाँ सर्वसाधनशून्य दशा में भी भगवान का स्मरण नहीं होता, इससे अधिक इसकी शोचनीय दशा और क्या हो सकती है? अस्तु, उसके हितैषियों और उसको चाहिये कि वह भगवान को पुकारें और प्रार्थना करें कि ‘हे नाथ! हम सबको आपमें विश्वास और भक्ति दो, जिससे कि हम आपको पुकारें। हम सबकों धर्मग्लानि-अधर्माभ्युत्थान मिटाकर परमकल्याणमूलभूत धर्म में प्रीति दो, जिससे सब तरह के अनर्थ मिटकर भारत फिर अभ्युदय एवं निःश्रेयस का भागी हो।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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