भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
नामरूप की उपयोगिता
भिन्न-भिन्न नामरूप के अभिमानी देवगण गजेन्द्र की स्थिति देखते थे। उसकी स्तुति भी सुन रहे थे, उसको मुक्त करने में समर्थ भी थे, परन्तु उनके नामरूप में उनकी स्तुति नहीं थी, इसीलिए उनकी प्रवृत्ति गजेन्द्र के रक्षण में नहीं हुई। उसकी रक्षा तो उसी से हुई, जो किसी नामरूप विशेष का अभिमानी नहीं था। जो सभी नामों तथा रूपों को अपना ही मानता था। इतना ही क्यों, विष्णु के ही विविध स्वरूपों में इस नाम या इस रूप से मुक्ति होती है, दूसरे से नहीं; श्रीकृष्ण का वन्दन अमुक वेशभूषा में ही हो सकता है, दूसरे में नहीं, ऐसे विचित्र विचार भी प्रचलित हैं, जो वैमनस्य और विद्वेष के मूल बन रहे हैं। परन्तु फिर भी क्या यह नामरूप और क्रियाओं की कल्पना व्यर्थ है? अभिज्ञों का तो कहना है कि प्राणी जब तक सत्त्व, रज, तम आदि गुणों और विविध नामरूप एक कार्मों में बँधा हुआ है तब तक उसे गुण एवं नामरूप क्रिया व्यतीत वस्तु का दर्शन और उपलब्धि असम्भव ही है। वेदान्त तो पग-पग पर यही उपदेश करता है कि मनोवचनातीत, अनिर्देश्य, अव्यवहार्य, प्रपंचातीत, परमतत्त्व ही सब कुछ है, उससे भिन्न कोई भी व्यवहार-विषय तथ्य नहीं है। परन्तु जो अनेक तापों से सन्तप्त एवं अशान्त है, उसे क्या इन वचनों मात्र में शान्ति हो सकती है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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