भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
प्रेमतत्त्व
प्रेमी कहते हैं कि भगवान के उत्कट स्नेह से चित्त को इतना द्रुत करे कि वह गंगाजल के समान निर्मल, कोमल तथा द्रवीभूत हो जाय। फिर उसमें भगवान का स्थायी रूप से प्राकट्य होता है-
अर्थात भगवान के गुणों के श्रवण से भगवान में द्रवीभूत चित्त की वृत्तियों का ऐसा प्रवाह चलता है, जैसे-कोमल, निर्मल, द्रवीभूत गंगाजल का प्रवाह समुद्र की ओर चलता है। जिस समय द्रवीभूत चित्त में पूर्णतम पुरुषोत्तम प्रभु का प्राकट्य होता है, उस समय ही स्थिर भक्ति कही जाती है। जैसे लाक्षा के कठोर रहने पर उसमे रंग स्थिर नहीं होता, लाख की टिकिया पर मुहर का अक्षर अंकित करने के लिये भी अग्नि के सम्बन्ध से उसे कुछ कोमल किया जाता है, क्योंकि कठोर लाख पर मुहर के अक्षर अंकित नहीं होते, वैसे ही कठोर, अद्भुत चित्त पर भगवान का स्वरूप, चरित्र, गुण तथा अन्यान्य सदुपदेश अंकित नहीं होता। परन्तु गंगाजल के समान कोमल, द्रवीभूत अन्तःकरण में भगवान का प्राकट्य होने से फिर भगवान भी निकलने में समर्थ नहीं होते। जैसे लाक्षा के साथ एकदम मिला हुआ रंग उसमें से निकलने में समर्थ नहीं होता, लाख चाहे तो भी रंग से वियुक्त नहीं हो सकती, वैसे ही यदि भगवान चाहें, तो भी भक्त के द्रवीभूत चित्त से निकल नहीं सकते। भक्त भी यदि चाहे, तो भी वह भगवान से वियुक्त नहीं हो सकता, भगवान को अपने अन्तःकरण से निकाला नहीं जा सकता।“विसृजति हृदयं न यस्य साक्षात् हरिरवशाभिहतोऽप्यघौघनाशः। अर्थात जिसके हृदय की प्रणय-रशना से बँधे हुए भगवान अपने को न छुड़ा सकें, वही प्रधान भक्त है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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