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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवान का अवलम्बन अनिवार्य
हम यह नहीं कह सकते कि अन्य साधनों का उपयोग न किया जाय किन्तु जब अन्य साधन पास में नहीं, तब आखिर किया ही क्या जाय? साथ ही बात यह है कि यह सबसे हो भी नहीं सकता, घर में आग लगी हो और हम मन्दिर में बैठकर माला फेरें, दुर्गापाठ करें, यह सबसे नहीं हो सकता। हो भी सकता है, पर इसके लिये अटल विश्वास की आवश्यकता है। पुरुषोत्तम, परब्रह्म, सर्वान्तरात्मा भगवान में पूर्ण विश्वासवाला व्यक्ति ही ऐसा कर सकता है। भगवान उसकी सहायता अवश्य करते हैं, पर साधारण स्थिति वालों के लिये तो “मामनुस्मर युद्धय च” का ही मार्ग सर्वोत्तम जान पड़ता है। हाँ, कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान को ही अनन्यगति समझते हैं। भगवत्पाद-पंकज में उनका मनोमिलिन्द अहर्निश आसक्त रहता है। वे ही प्रभु के भरोसे अनन्य निश्चिन्त रहते हैं। जो दशा पुत्र वत्सला माँ के अत्संगलालित शिशु की है, वही दशा भगवत्पादाविन्दानुरागियों की भी है और वे ही घर में आग लगने पर भी निश्चिन्त होकर माला लेकर बैठ सकते हैं। भक्त वत्सल भगवान अपने ऐसे विश्वासी भक्तों का योग-क्षेम स्वयं वहन करते हैं। तभी तो भगवान किसी के घर पानी भरते और किसी का छप्पर छवाते देख गये हैं। करें ही क्या? ठहरे तो भक्तभावनापराधीन ही न, भक्तवांछाकल्पतरु ही न। यदि हम साधनासम्पन्न हों, तो भी भगवान से विमुख न होकर ही हमें प्रयत्न करना चाहिये, क्योंकि “राम बिमुख सम्पति प्रभुताई, गई रही पाई बिनु पाई।” जिस सरिता का कोई उद्गम-स्थान नहीं, वह शीघ्र ही सूख जाती है। इसलिये यदि चाहते हों कि हमारी स्थायी उन्नति हो, साम्राज्य, स्वराज्य आदि मिले, लौकिक अभ्युदय हो और साथ ही अनन्तकोटि-ब्रह्माण्ड-नायक भगवान भी मिलें, तो हमें भगवच्चरणों का सहारा लेना पड़ेगा, भगवद्भक्त बनना ही होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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