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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवच्छरणागति से ही गति
कुछ लोगों का कहना है कि इतना ही नहीं, किन्तु, ‘योगभ्रष्ट’ का यह भी अर्थ है कि जो योगमार्ग से भ्रष्ट हो गया अर्थात कामादि दोषों से अभिभूत होकर मायिक प्रपंचों में फँस गया उसी की छिन्नाभ्रवत् नष्ट होने की सम्भावना हो सकती है। जो सदाचारी एवं नियत-मानस होकर श्रवणादि में लगा रहता है, वह तो एक प्रकार के बड़े दिव्य पुण्य में ही लगा रहता है। श्रद्धापूर्वक वेदान्तश्रवण से प्रतिदिन अशीति (80) कृच्छ्रचान्द्रायण का पुण्य शास्त्रों में कहा गया है। अनेक जन्मों के अभ्यास से ही संसिद्धि प्राप्त होती है, यही गीता का भी अभिप्राय है- “अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।” अर्जुन के प्रश्न से भी यही मालूम होता है कि यह विकर्म-निमित्त योगभ्रंश को लेकर ही प्रश्न उठा है- अर्थात जो अयति अर्थात पूर्ण नियतमानस न होने के कारण श्रद्धायुक्त होने पर भी योग से विचलित हो गया, वह योगसिद्धि से वंचित होकर किस गति को प्राप्त होता है? भगवान ने कहा कि जो भी कल्याण के मार्ग पर चलता है, उसका अकल्याण नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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