भक्ति सुधा -करपात्री महाराज पृ. 366

भक्ति सुधा -करपात्री महाराज

चतुर्विधा भजन्ते

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अस्तु, जो लोग विवेक और ज्ञान के साथ भगवत्प्राप्ति को लक्ष्य बनाकर ग्रन्थों का अध्ययन नहीं करते, उनके लिये ग्रन्थ ग्रन्थि का ही काम करते हैं। ऐसे लोग भगवत्साक्षात्कार नहीं कर सकते। तीसरे प्रकार के भक्त हैं आर्त्त-गजेन्द्र, द्रौपदी की तरह पीड़ित, सताये गये।
चौथे भक्त हैं अर्थार्थी- विभीषण की तरह। जिस समय विभीषण सर्व-सौन्दर्याधार, अखण्डानन्दभण्डार, परमसमुज्ज्वल, अतिसुन्दर, चिरमधुर रसमय भगवान के पास आया, उस समय कहता है कि-

“नाथ! उर कछु प्रथम बासना रही, प्रभुपदप्रीति सरिता सो बही।”

फिर तत्क्षण कहता है कि-

“अब कृपाल निज भगति पावनी, देहु कृपा करि शिवमन-भावनी।”

इनमें एक भक्त ऐसे होते हैं, जो ज्ञान भी प्राप्त करना चाहते हैं, धन भी प्राप्त करना चाहते हैं और विपत्ति-निवारण भी करना चाहते हैं। यद्यपि ज्ञान प्राप्त करने, धन प्राप्त करने और विपत्ति-निवारण करने का साधन उनके पास है, तथापि वे भगवान का भजन नहीं छोड़ते।

जो अस्त्रबल, बाहुबल, बौद्धबल के घमण्ड में आकर भगवान को भूल जाते हैं, उनका मनोरथ मरुभूमि की नदियों की तरह बीच ही में सूख जाता है, सिद्धिसाफल्य मिलना तो दूर रहा। इसलिये अर्जुन जिस समय कृष्णचन्द्र की पटरानियों को लेकर लौट रहे थे, उस समय आभीरों ने उनको बाँस के खण्डों से पीट-पीटकर पटरानियों को छीन लिया। वही शक्तिमान अर्जुन, वही सेना, वही नन्दिघोष रथ और वही गाण्डीव धनुष, किन्तु एक श्रीकृष्ण के बिना उनके सारे साधन बेकार हो गये। अस्तु, कोई कितना ही शक्ति सम्पन्न क्यों न हो, भगवच्चरणों का सहारा लेते हुए ही उसे चलना चाहिये।

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो चाहते तो सब कुछ हैं, पर साधन एक भी नहीं। ऐसे लोगों को भी निराश न होना चाहिये। शास्त्रों ने उनको भी आश्वासन दे रखा है- “सुने री मैंने निर्बल के बल राम।” निष्काम अनन्यभक्त नरसी की तरह जो साधनविहीन हैं, दीन-दुनिया का जिन्हें कुछ भी भरोसा नहीं, केवल भगवान का सहारा है, ऐसे भक्तों को भगवान ऐसा प्रसन्न करते हैं कि वह निहाल हो जाता है।

ऐसे भी भक्त होते हैं, जो चाहते सब कुछ हैं, पर साधन कुछ नहीं है और साथ ही भगवान पर विश्वास भी नहीं है। ऐसे लोगों के लिये भी शास्त्रों में निराशा का शब्द नहीं। उनके लिये शास्त्र कहते हैं कि भगवान को पुकारो- “हे अशरण-शरण, हे अनाथनाथ, हे अकारण-करुण, हे करुणा-वरुणालय, हे प्रभो! मैं आपको नहीं जानता। अपने को नहीं जानता, आपके और अपने सम्बन्ध को नहीं जानता। माया ठगिनी ने मुझे खूब ठगा। मैं उन्मादी बन बैठा। तरंग, कटक, मुकुट, कुण्डल, घटाकाश जैसे घमण्ड करे कि मेरे अतिरिक्त जल नाम की कोई वस्तु नहीं, स्वर्ण नाम की कोई वस्तु नहीं और महाकाश नाम की कोई वस्तु ही नहीं है। ठीक इसी प्रकार भगवान! मैं इतना उन्मादी बन बैठा कि कहने लगा ईश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं। हे नाथ! अब आप ही कृपा करें कि मैं भाव-कुभाव जिस किसी तरह से भी आपको पुकारूँ।”

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भगवत्प्राप्ति 1
2. नामरूप की उपयोगिता 3
3. इष्टदेव की उपासना 8
4. मानसी-आराधना 20
5. सगुणोपासना में सरलता 24
6. संकल्पबल 28
7. श्री शिवतत्व 48
8. शिव से शिक्षा 60
9. शिवलिंगोपासना-रहस्य 63
10. श्री विष्णु-तत्त्व 88
11. गायत्री-तत्त्व 97
12. श्री भगवती-तत्त्व 102
13. बुद्धावतार का प्रयोजन 178
14. गजेन्द्र-मुक्ति 182
15. शक्ति का स्वरूप 188
16. माँ के चरणों में 194
17. पीठ रहस्य 226
18. गणपति तत्त्व 235
19. अवतारमीमांसा 247
20. निराकार से साकार 255
21. भगवदवतार का प्रयोजन 275
22. भारत ही में अवतार क्यों? 281
23. ज्ञान और भक्ति 287
24. भक्तिरसामृतास्वादन 327
25. अव्यभिचार भक्तियोग 352
26. सबसे सगे भगवान 360
27. चतुर्विधा भजन्ते 363
28. भगवच्छरणागति से ही गति 367
29. भगवान का अवलम्बन अनिवार्य 372
30. प्रेमतत्त्व 375
31. भगवान और प्रेम 384
32. भगवत्कथामृत 390
33. प्रभुकृपा 396
34. निर्बल का बल 401
35. करुणालहरी 408
36. श्रीरामजन्म-रहस्य 411
37. श्री रामभद्र का ध्यान 415
38. श्रीकृष्ण-जन्म 422
39. भगवान का मंगलमय स्वरूप 428
40. विभीषण-शरणागति 450
41. श्रीकृष्ण बालक्रीड़ा 469
42. साक्षान्मन्मथमन्मथः 486
43. श्रीवृन्दावन में वर्षा और शरत 507
44. वेणुरव 512
45. किरातिनियों का स्मररोग 517
46. वेणुगीत 525
47. चीरहरण 691
48. वेदान्त-रससार 730
49. निर्गुण या सगुण? 781
50. व्रज-भूमि 797
51. सर्वसिद्धान्त-समन्वय 808
52. क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा? 839
53. श्रीरासलीलारहस्य 854
54. श्री रासपञ्चाध्यायी 1142

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