भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चतुर्विधा भजन्ते
अस्तु, जो लोग विवेक और ज्ञान के साथ भगवत्प्राप्ति को लक्ष्य बनाकर ग्रन्थों का अध्ययन नहीं करते, उनके लिये ग्रन्थ ग्रन्थि का ही काम करते हैं। ऐसे लोग भगवत्साक्षात्कार नहीं कर सकते।
तीसरे प्रकार के भक्त हैं आर्त्त-गजेन्द्र, द्रौपदी की तरह पीड़ित, सताये गये। “नाथ! उर कछु प्रथम बासना रही, प्रभुपदप्रीति सरिता सो बही।” “अब कृपाल निज भगति पावनी, देहु कृपा करि शिवमन-भावनी।” इनमें एक भक्त ऐसे होते हैं, जो ज्ञान भी प्राप्त करना चाहते हैं, धन भी प्राप्त करना चाहते हैं और विपत्ति-निवारण भी करना चाहते हैं। यद्यपि ज्ञान प्राप्त करने, धन प्राप्त करने और विपत्ति-निवारण करने का साधन उनके पास है, तथापि वे भगवान का भजन नहीं छोड़ते। जो अस्त्रबल, बाहुबल, बौद्धबल के घमण्ड में आकर भगवान को भूल जाते हैं, उनका मनोरथ मरुभूमि की नदियों की तरह बीच ही में सूख जाता है, सिद्धिसाफल्य मिलना तो दूर रहा। इसलिये अर्जुन जिस समय कृष्णचन्द्र की पटरानियों को लेकर लौट रहे थे, उस समय आभीरों ने उनको बाँस के खण्डों से पीट-पीटकर पटरानियों को छीन लिया। वही शक्तिमान अर्जुन, वही सेना, वही नन्दिघोष रथ और वही गाण्डीव धनुष, किन्तु एक श्रीकृष्ण के बिना उनके सारे साधन बेकार हो गये। अस्तु, कोई कितना ही शक्ति सम्पन्न क्यों न हो, भगवच्चरणों का सहारा लेते हुए ही उसे चलना चाहिये। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो चाहते तो सब कुछ हैं, पर साधन एक भी नहीं। ऐसे लोगों को भी निराश न होना चाहिये। शास्त्रों ने उनको भी आश्वासन दे रखा है- “सुने री मैंने निर्बल के बल राम।” निष्काम अनन्यभक्त नरसी की तरह जो साधनविहीन हैं, दीन-दुनिया का जिन्हें कुछ भी भरोसा नहीं, केवल भगवान का सहारा है, ऐसे भक्तों को भगवान ऐसा प्रसन्न करते हैं कि वह निहाल हो जाता है। ऐसे भी भक्त होते हैं, जो चाहते सब कुछ हैं, पर साधन कुछ नहीं है और साथ ही भगवान पर विश्वास भी नहीं है। ऐसे लोगों के लिये भी शास्त्रों में निराशा का शब्द नहीं। उनके लिये शास्त्र कहते हैं कि भगवान को पुकारो- “हे अशरण-शरण, हे अनाथनाथ, हे अकारण-करुण, हे करुणा-वरुणालय, हे प्रभो! मैं आपको नहीं जानता। अपने को नहीं जानता, आपके और अपने सम्बन्ध को नहीं जानता। माया ठगिनी ने मुझे खूब ठगा। मैं उन्मादी बन बैठा। तरंग, कटक, मुकुट, कुण्डल, घटाकाश जैसे घमण्ड करे कि मेरे अतिरिक्त जल नाम की कोई वस्तु नहीं, स्वर्ण नाम की कोई वस्तु नहीं और महाकाश नाम की कोई वस्तु ही नहीं है। ठीक इसी प्रकार भगवान! मैं इतना उन्मादी बन बैठा कि कहने लगा ईश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं। हे नाथ! अब आप ही कृपा करें कि मैं भाव-कुभाव जिस किसी तरह से भी आपको पुकारूँ।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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