भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
अव्यभिचार भक्तियोग
‘विजातीयप्रत्यय निरासपूर्वक सेव्याकाराकारित मानसीवृत्ति प्रवाह’ ही मानसी सेवा है। जिस प्रकार समुद्रोन्मुखी गंगा का अखण्ड प्रवाह चलता है, उसी प्रकार भगवदुन्मुखी मानसी वृत्तियों का प्रवाह चलना ही भगवान की मानसी सेवा है। जैसे सगुण, साकार, सच्चिदानन्द भगवान के आकार से आकारित वृत्ति का प्रवाह होता है, वैसा ही वेदान्तवेद्य निर्गुण, निराकार, निर्विकार, अदृश्य, अग्राह्य, अचिन्त्य, अव्यपदेश्य भगवान की स्वरूपविषयिणी वृत्तियों का भी प्रवाह होता है। निर्विकार परब्रह्माकार मानस प्रवाह ही भक्ति, भजन या सेवा है और वही भगवान का प्रापक होने से या एकाग्रता होने से योग भी है। जब वह बीच-बीच में भगवान से हटकर बाह्य प्रपंचों से जुड़ जाता है, तब व्यभिचारी कहा जाता है। अतः अन्य-सम्बन्ध विवर्जित, निर्विशेष भगवान के आकार से आकारित अविच्छिन्न मानस वृत्ति-प्रवाह ही अव्यभिचार भक्तियोग है, वही ज्ञानाभ्यास और वही निदिध्यासन है। इस अव्यभिचार भक्तियोग से भगवान का सेवन करने से साक्षात्कार द्वारा अति शीघ्र ही गुणमय प्रपंच का बोध हो जाता है। ज्ञान चतुर्थी भक्ति है। अतः भगवान के आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी से चार भक्त होते हैं- “चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।” ज्ञानी ज्ञान से ही भगवान का भजन या सेवन करता है। ज्ञानी भगवान का अत्यन्त प्रिय भक्त है। यद्यपि भगवान के भजन करने-वाले सभी भगवान के प्रिय एवं उदार हैं तथापि ज्ञानी तो एकमात्र भगवान में ही भक्ति करता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में भगवान से भिन्न दूसरी दृष्टि रहती ही नहीं। अत: ज्ञानी को भगवान एक क्षण के लिये भी अदृश्य नहीं होते और भगवान को ज्ञानी नहीं अदृश्य होता। ज्ञानी भगवान का साक्षात अन्तरात्मा होता है- “ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।” प्रथम सूक्ष्मतत्त्व में मन की स्थिति असंभव है, अतः विराट्, हिरण्यगर्भादि तत्त्वों में मन को स्थित करके फिर क्रमेण सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान सगुण में स्थिति-सम्पादन करते हुए निर्गुण, निराकार, निर्विशेष ब्रह्म में स्थिति संपन्न होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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