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योगी आदि भी परमात्मा के संकल्प से सृष्टि मानते हैं परन्तु वहाँ उपादान विद्यमान है, परमेश्वर के संकल्प से ही वे-वे उपादान उन-उन कार्यों के रूप में परिगत होते हैं। कुम्भकार के समान परमेश्वर को हस्तादि व्यापार की अपेक्षा नहीं होती है। विशिष्ट शक्ति-सम्पन्न योगियों के भी संकल्पमात्र से प्रकृति और प्राकृत-प्रपंच में उथल-पुथल मच जाता है। किसी वस्तु का प्रकृति में विलयन और किसी को प्रकृति से साहाय्य (आपूर) प्राप्त होता है। वाचस्पति मिश्र ने कहा है कि-
‘भगवान के स्वाभाविक सहज निःश्वास से अनन्त विद्याओं के उद्गम स्थान वेदों का प्रादुर्भाव होता है, उनके अवलोकन (निहारने ) से ही ब्रह्माण्डों के उपादान-भूत पंचमहाभूत- आकाश, वायु, तेज आदि की उत्पत्ति होती है, और भगवान के मन्दहास (मुस्कुराहट) से ही अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड बनकर तैयार हो जाता है। उनके सोने से आँख मीच लेने से ही विश्व का प्रलय हो जाता हैं।’
यहाँ भी रूपक के द्वारा परमात्मा के संकल्प से ही साक्षात एवं परम्परा से विश्व की उत्पत्यादि का वर्णन किया गया है। यहाँ पूर्व-पूर्व कार्यों में बुद्धि एवं प्रयत्न की निरपेक्षता उत्तरोत्तर कार्यों में कुछ सापेक्षता कही गयी है।
सारांश यह है कि भगवान अपने संकल्प से ही सब संसार को बनाते हैं। भगवान का ही अंश जीवात्मा है, और भगवान की माया का ही अंश जीव का मन है। अतः भगवान और माया की शक्ति उसी तरह जीवात्मा और मन में रहती है, जैसे महाकाश की अवकाश प्रदत्वशक्ति घटाकाश में रहती है, जल की शीतलता, मधुरता उसके अंश तरंग में हुआ करती है, अग्नि का दहन-प्रकाशन-सामर्थ्य उसके अंश विस्फुल्लिंग (चिंगारी) में रहा करता है। इस दृष्टि से भगवान की सभी शक्तियाँ जीवात्मा में होती है। माया की शक्तियाँ मन में रहती हैं। इसीलिये शास्त्रों ने कहा है कि जीवात्मा अपने संकल्पों-विचारों से बहुत कुछ कार्य कर सकता है। हाँ, अत्याचार, अनाचार, पापाचार, व्यभिचार आदिकों से संकल्प की शक्ति कमज़ोर हो जाती है। सदाचार, सद्विचार, सद्धर्म, तपस्या आदि से संकल्प की शक्तियाँ दृढ़ (जोरदार) हो जाती हैं।
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