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श्रीमद्भागवत में भी कहा है-
- “येऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्तमानिनस्त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः।
- आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं ततः पतन्त्यधोऽनादृतयुष्मदङ्घ्रयः।।”
अर्थात हे कमलनयन! जो ज्ञान के प्रभाव से अपने को निर्मुक्त जानने वाले हैं या ज्ञानी मानते हैं, परन्तु आपके श्रीचरणारविन्द प्रेम द्वारा जिनकी बुद्धि शुद्ध नहीं है, वे बड़ीं कठिनाई से उच्चतम पद पर आरूढ़ होकर भी पुनः पतित हो जाते हैं। क्योंकि उन्होंने आपके श्रीचरण कमल का आदर नहीं किया।
- “जे ज्ञान मान विमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।
- ते पाइ सुरदुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी।।”
- “नानु व्रजति यो मोहाद् व्रजन्तं हरिमीश्वरम्।
- ज्ञानाग्नि-दग्ध-कर्माऽपि स भवेद्राक्षसाधमः।।”
अर्थात श्रीहरि की रथयात्रा में जो मोहवश उनका अनुगमन नहीं करता, वह ज्ञानाग्निदग्ध कर्मा होकर भी राक्षसाधम हो जाता है। जो ज्ञान प्रयास को छोड़कर सन्तों को भी मुखरित करने वाली श्रवणरन्ध्र में प्राप्त भगवान की वार्ता को शरीर, वाक् तथा मन से प्रणाम करता हुआ, जीवन व्यतीत करता है, वह त्रिलोकी में अजित भगवान को भी जीत लेता है, अर्थात मनोवचनातीत भगवान को अपने तनु तथा मन के वश में कर लेता है-
- “ज्ञाने प्रयासमुदपास्य नमन्त एव जीवन्ति सन्मुखरितां भवदीयवार्त्ताम्।
- स्थाने स्थिताः श्रुतिगतां तनुवाङमनोभिर्ये प्रायशोऽजितजितोऽप्यसितैस्त्रिलोक्याम्।।”
- “तथा न ते माधव तावकाः क्वचिद् भ्रश्यन्ति मार्गात्त्वयि बद्धसौहृदाः।
- त्वयाभिगुप्ता विचरन्ति निर्भया विनायकानीकपमूर्धसु प्रभो।।”
भगवान के साथ जिनका सौहार्द सुदृढ़ हैं, ऐसे भगवान के भक्त कभी भी मार्ग से नहीं गिरते, अपितु वे भगवान द्वारा सुरक्षित हो विघ्न सेनानियों के सिर पर पाद-विन्यास करते हुए निर्भय विचरते हैं।
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