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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भारत ही में अवतार क्यों?
जो वेद, शास्त्र और वैदिक धर्म से द्वेष करते हैं, वे भारतीय ब्राह्मण ही क्यों न हों, उन्हें कौन समझा सकता है? सभी जीव भगवान के अंश होने से उन्हें प्रिय हैं, वे कभी भी भगवान और भगवदीयों के उपेक्ष्य नहीं है। अतः उन देशों और समाजों में भी किसी-न-किसी रूप में उनकी उच्छृंखलता वारण कर कुछ सत्पथ पर लाने के लिये किसी-न-किसी विभूति द्वारा किसी-न-किसी धर्म का वहाँ भी स्थापन और प्रसार किया जाता है। कुछ न कुछ नियमन या पाशविक भावों का नियन्त्रण वहाँ भी होता है। परन्तु वास्तविक धर्म और उसके बोधक शास्त्र का भी संरक्षण कहीं न कहीं होना ही चाहिए। इसलिये विश्व-हृदय भारतवर्ष में सदा ही वेदाहि शास्त्रों की रक्षा और तदुक्त धर्मों की रक्षा के लिये भगवान का प्रादुर्भाव होता है। अन्याय देशों में भी कहा जाता है कि कहीं परमेश्वर के ‘दूत’ या ‘पुत्र’ का प्रादुर्भाव होता है, परन्तु भारत में तो स्वयं भगवान का ही प्रादुर्भाव होता है। वहाँ वैदिक धर्म की रक्षा और प्रकाश से समरत विश्व का प्रकाश और उसकी रक्षा हो सकती है। शरीर के सभी स्थानों में आत्मा का प्रकाश नहीं होता, इससे आत्मा की संकीर्णता की कल्पना नहीं की जा सकती। इसी तरह भारत में ही वैदिक धर्म और शास्त्रों की रक्षा के लिये यहाँ ही भगवान का प्रादुर्भाव हो, इससे उनके शास्त्र और धर्म में संकीर्णता नहीं कही जा सकती। योग्यता और अधिकार के व्यक्त होने पर प्राणीमात्र का परम कल्याण वैदिक धर्म से ही हो सकता है। इन्हीं सब भावों को ध्यान में रखने से यह समझ में आता है कि भगवान भारत ही में क्यों अवतार लेते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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