भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निराकार से साकार
कुछ लोग कहते हैं कि भक्त की भावना ही भगवान है। भक्त की भावना बहुत प्रधान है, भक्त-भावना के अनुसार भगवान अपना रूप बनाते हैं, केवल भावना ही भगवान नहीं है- “यद्यद्धियात उरुगाय विभावयन्ति तत्तद्वपुः प्रणयसे सदनुग्रहाय।” अर्थात भक्त लोग भक्तियुक्त प्रज्ञा से आपके जैसे-जैसे रूप की भावना करते हैं, आप वैसा ही वैसा स्वरूप धारण कर लेते हैं। विशुद्ध सत्त्व एवं लीलाशक्ति के योग से निर्विकार, निराकार परमात्मा ही साकार होकर प्रकट होते हैं। जैसे जल के बर्फ बनने में शैत्य निमित्त होता है, वैसे ही निराकार, निर्विकार परमात्मा के साकार होने में विशुद्ध सत्त्व निमित्त होता है। दूसरे पक्ष का सिद्धान्त यह है कि कूटस्थ, निर्विकार शुद्ध परमात्मा ही देहवान-सा प्रतीत होता है, वस्तुतः देहदेहिभाव है ही नहीं। कृष्णचन्द्र का जन्म, कर्म सब कुछ दिव्य है अर्थात सब कुछ विशुद्ध ब्रह्म ही है, ब्रह्म से अतिरिक्त और कोई भी वस्तु नहीं है। भगवान की अचिन्त्य शक्ति अन्यान्य प्रापंचिक शक्ति से विलक्षण परम शुद्ध होने पर भी अनिर्वचनीयता-अंश में समान ही है। इस तरह अद्वैत-सिद्धान्त की सुरक्षा के साथ-साथ ही भगवान का सगुण, साकार स्वरूप भी सिद्ध हो जाता है। सर्वथाऽपि भगवान के अवतार में अवान्तर मतभेद होने पर भी किसी सनातन धर्मी को विवाद नहीं है। भगवान भाष्यकार शंकराचार्य तो अपने ‘प्रबोधसुधाकर’ नामक ग्रन्थ में बड़े समारोह से सगुण-निर्गुण का ऐक्य कहते हैं। उन्हीं आचार्यचरणों ने बदरानारायण, हृषोकेश (भरत जी) आदि अनेक मूर्तियों की स्थापना की है। अद्वैत-सम्प्रदाय के अनेक आचार्यों ने सगुण, साकार भगवान के स्वरूप का समर्थन किया है। अतः यह कथन कथमपि संगत नहीं है निराकार ब्रह्म साकार नहीं हो सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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