भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
मानसी-आराधना
कौशल्या-सुमित्रा आदि माताओं और सनयनादि श्वश्रुओं से निर्मित अनन्त व्यंजनों की भावना साधारण शाक में भी बनायी जा सकती है। भक्त कहता है- ‘‘नाथ! आपने जिस रुचि से शबरी के बेर और सुदामा के तण्डुल को ग्रहण किया था, उसी रुचि से मेरे इस नैवेद्य को ग्रहण करो।’’ ‘‘देव! श्रीयशोदा, रोहिणी के हाथ के नवनीत और दधि की भावना से मेरे इन पदार्थों को ग्रहण करो।’’ श्रीसीता-राधा से परिवेषित व्यंजनों की भावना से सचमुच भक्त समर्पित वस्तु वैसी हो जाती है। भगवान के सम्मुख स्थित नैवेद्यों में श्रीराधा की अधर-सुधा और भूषण-वसनों में श्रीराधा की ही भावना से अपनी समर्पित वस्तुओं का महतत्त्व बढ़ा लिया जाता है। किसी कर्म में साभिनिवेश मन का योग होने से उसका महत्त्व बढ़ जाता है। यज्ञ, दान, तप आदि भी विद्या-भावना सहित किये जाने से उच्चतम फल के कारण बन जाते हैं। कायिक, वाचिक, मानस विविध कर्मों में मानस कर्म की महिमा अधिक है। कायिक, वाचिक कर्मों का मूल भी मानस ही कर्म है। जैसे सर्यकान्ता पर सूर्य व्यक्त होता है, वैसे ही शुद्ध भावना पर भगवान का प्राकट्य होता है। भावनामयी मूर्ति पर भगवान का प्राकट्य होता है। जैसे वह्नि की ज्वाला, चन्द्र सूर्य की ज्योत्स्ना या प्रभा अन्यत्र अव्यक्त होती है। वैसे ही मन्त्र-विधान और भावना की महिमा से देवतत्त्व की मूर्तियों में अभिव्यक्ति होती है। इन दृष्टियों से मनोमयी मूर्ति में तो साक्षात की भगवान का आविर्भाव होता है। यद्यपि सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमात्मतत्त्व का स्वरूप श्रुति-युक्ति से समझ लिया जा सकता है। और इसे भी अनन्तानन्त जन्मों के पुण्यपुंज का ही परिणाम समझना चाहिए, तथापि श्रद्धाभक्ति पूर्वक निरन्तर चिन्तन एवं भावना के बिना तत्त्व का अपरोक्ष नहीं होता। सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान भगवान की निखिल रसामृतमूर्ति मनोहर विग्रह का ध्यान, भावन, मानस आराधन ही समस्त पुरुषार्थो का परम मूल है। बिना इसके सगुण या निर्गुण किसी भी स्वरूप का साक्षात्कार नहीं हो सकता पुरुषार्थ का मूल ही क्या महानुभावों ने इसी को परम पुरषार्थ भी स्वीकार किया है। यदि मन का अखण्डप्रवाह सौन्दर्य माधुर्य सुधाजलनिधि भगवान के श्रीअंग की ओर हो, पदनख मणिचन्द्रिका या अमृतमय मुखचन्द्र के माधुर्य-रसास्वादन में दृष्टि आसक्त हो जाय तब तो कुछ अवशिष्ट ही नहीं रहता। परन्तु, जब तक मनोमयी भगवदीय मूर्तिरूप में भगवान का प्राकट्य नहीं हुआ और पूर्ण मानसी स्थिति नहीं हुई, तब तक उसकी सिद्धि के लिये अन्य अर्चा आदि मूर्तियों में भगवान की तनुजा और वित्तजा आराधना करनी चाहिये- आचार्यों ने कहा है कि प्राणियों को सदा ही श्रीकृष्ण- सेवा में संलग्न रहना चाहिए। उनमें भी मानसी सेवा बड़े महत्त्व की है। चित्त की भगवत्प्रवणता (भगवान में तन्मयता ) ही मानसी सेवा है, उसी की सिद्धि के लिये तनुजा और वित्तजा सेवा करनी चाहिये-
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