भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
पीठ-रहस्य
सन्ध्या में भी काम के वेग से हाव-भाव आदि प्रकट हुए। श्रीशंकर भगवान ने इन सबकी चेष्टाओं को देखकर उन्हें प्रबोध कराया। ब्रह्मा लज्जित हो उठे और काम को शाप दिया कि- “तुम शंकर की कोपाग्नि से भस्म हो जाओगे।” काम ने कहा- “महाराज! आपने ही तो मुझे ऐसा वरदान दिया है, फिर मेरा क्या दोष?” ब्रह्मा ने कहा-“कन्या जैसे अयोग्य स्थान में मुझे तुमने मोहित किया, इसीलिये तुम्हें श्राप हुआ। अस्तु, अब तुम शिव को वशीभूत करो। काम ने कहा कि “शिव- श्रृंगारयोग्य, उन्हें मोहित करने वाली स्त्री संसार में कहाँ है?” ब्रह्मा ने दक्ष को आज्ञा दी-“तुम महामाया भगवती योगनिद्रा की आराधना करो। वह तुम्हारी पुत्रीरूप से अवतीर्ण होकर शंकर को मोहित करे।” दक्ष भगवती की आराधना में लग गये। ब्रह्मा भी भगवती की स्तुति में संलग्न हुए। भगवती प्रकट हुई और कहा-“वरदान माँगो।” ब्रह्मा ने कहा-“देवि! भगवान शिव अत्यन्त निर्मोह एवं अन्तर्मुख हैं। हम सब कामवश है, एक उन्हीं पर काम का प्रभाव नहीं है। बिना उनके मोहित हुए सृष्टि का काम नहीं चल सकता। मैं उत्पादक, विष्णु पालक और वे संहारक हैं। तीनों के सहयोग बिना सृष्टिकार्य असम्भव है। सृष्टि के विघ्नरूप दैत्यों के हनन में भी कभी विष्णु का, कभी शिव का प्रयोजन होगा, कभी शक्ति से यह काम होगा। अतः उनको कामासक्त होना आवश्यक है।” देवी ने कहा- “ठीक है, मेरा भी विचार उन्हें मोहने का था, परन्तु अब तुम्हारे प्रोत्साहन से मैं अधिक प्रयत्नशील होऊँगी। मेरे बिना शंकर को कोई नहीं मोहित कर सकता। मैं दक्ष के यहाँ जन्म लेकर जब अपने दिव्यरूप से शंकर को मोहित करूँगी, तभी सृष्टि ठीक चलेगी।” यह कहकर देवी ने दक्ष के यहाँ जाकर उन्हें वर दिया और उनके यहाँ सती रूप से प्रकट हुईं। किंचित बड़ी होते ही शिव प्राप्ति के लिये तप करने लग गयीं। इतने ही में ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने जाकर शंकर जी की स्तुति की और उन्हें विवाह के लिये राजी किया। उधर सती की आराधना से शंकर प्रसन्न हुए और उन्हें वरदान दिया कि ‘हम तुम्हारे पति होंगे।’ फिर उनका सानन्द विवाह सम्पन्न हुआ और सहस्रों वर्षों तक सती और शिव का श्रृंगार हुआ। उधर दक्ष के यज्ञ में शिव का निमन्त्रण न होने से और उनका अपमान जानकर सती ने उस देह को त्यागकर हिमवत्पुत्री पार्वती होकर शिवपत्नी होने का निश्चय किया और योगबल से देह त्याग दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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