भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
मानसी-आराधना
उनका दर्शन, स्पर्शन, अनुभव, परमतत्त्व का ही अनुभव है। अत एव जिन लोगों ने भगवान श्रीमद्राघवेन्द्र रामचन्द्र का दर्शन, स्पर्शन, अनुमान किया, वे सभी परम पद के भागी हुए-
अर्थात महात्मा मारुति को इस अवसर पर मैं सर्वस्वभूत यह परिष्वंग (ब्राह्म-संस्पर्श) देता हूँ। इन बातों से यह स्पष्ट हो जाता है कि निर्गुण, निरंजन, विगत-विनोद, व्यापक ब्रह्म ही श्री कौशल्या नन्दन वर्धन राम या यशोदोत्संगलालित कृष्ण के रूप में व्यक्त होता है। फिर उनके संस्पर्श, उनकी प्राप्ति ब्रह्म की प्राप्ति क्यों न हो? इतना ही नहीं, भावुकों के मानस-पंकज में व्यक्त भगवान की मंगलमयी मानसी प्रतिमा भी शुद्ध ब्रह्मस्वरूप ही है, तभी उसको हृदय में आधान होने से मुक्ति की बात संगत हो सकती है। यद्यपि मन की और कल्पनाएँ मनोराज्य-कोटि में परिगणित होती हैं, तथापि श्रीभगवान के सम्बन्ध की सभी कल्पनाएँ-भावना-आराधना पद से व्यवहृता होती है। जैसे- शीतभरमन्थर- तरकायकाण्ड शीतातुर की भावना से- स्फुरज्ज्वालाजटिल अनल का साक्षात्कार या कामुक विधुर की भावना से होने वाले कामिनी साक्षात्कार को प्रमा न मानकर भ्रमरूप ही माना जाता है, वैसे उत्कण्ठा पूर्वक भावना से होने वाले भगवान के साक्षात्कार को भ्रमरूप नहीं समझा जाता। क्योंकि जैसे भावरूप निदिध्यासन या निर्गुणोपासन से निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार होता है वैसे ही सगुण ब्रह्म की भावना से उसका साक्षात्कार होता है। यद्यपि कामुक-कामित कामिनी साक्षात्कार और भक्तभावित भगवत्साक्षात्कार इन दोनों ही स्थलों में पुनः-पुनः साभिनिवेश चिन्तनरूप अभ्यास से जन्म संस्कार प्रचय (संस्कार-समूह) ही कारण है, अर्थात अभ्यासजन्य संस्कार-प्रचय की ही महिमा से ब्रह्म का साक्षात्कार और उसी से ही भावित कामिन्यादि का साक्षात्कार होता है तथापि ब्रह्म साक्षात्कार-स्थल में प्रमाण का संवाद होने से उसे प्रमा (यथार्थ ज्ञान) माना जाता है। प्रमाण-संवाद न होने से ही भावित कामिन्यादि साक्षात्कार को भ्रमरूप माना जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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