भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शक्ति का स्वरूप
भगवती ने कहा- मेरो मायाशक्ति से ही समस्त चराचर विश्व बनता है। वह माया भी मुझसे पृथक् नहीं है। व्यवहार दृष्टि से जो माया और अविद्या कहलाती है वह परमार्थतः मुझसे पृथक् कुछ भी नहीं है-
स्वप्रकाशरूपा भगवती ही निखिल प्रपंच का निर्माण करके उसमें वही प्रवेश करती है। जिस तरह एक ही आकाश घटाकाश और महाकाश के रूप में प्रकट होता है, उसी तरह स्वप्रकाश चैतन्य ही विद्याशक्ति विशिष्ट ईश्वर, अविद्या या अन्तःकरण विशिष्ट होकर जीवरूप में व्यक्त होता है। उन्हीं अनेक उपाधिभेदों से ही जीवों में नानात्व और गमनागमन सब कुछ उत्पन्न होता है। जैसे सूर्य भगवान उच्चावच अनेक प्रकार की वस्तुओं का प्रकाश करते हैं, परन्तु उनके गुणों या दोषों से वे युक्त नहीं होते, वैसे ही अखण्डबोधरूप सर्वान्तरात्मा सभी दृश्य का प्रकाशन करते हैं, परन्तु उनके गुणों और दाषों में वे लिप्त नहीं होते। जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब, या रज्जु में सर्प, वैसे ही शुद्धप्रकाशस्वरूप परमतत्त्व में समस्त प्रकाश्य परिकल्पित है। अत: ईश्वर, सूत्रात्मा, विराट्, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, गौरी, ब्राह्मी, वैष्णवी, सूर्य, तारक, तारकेश, स्त्री, पुमान्, नपुंसक एवं शुभ, अशुभ, समस्त प्रपंच ही परात्परपूर्णतम परम तत्त्व ही का स्वरूप है। जो भी कुछ देखा या सुना जाता है उसके भीतर और बाहर व्याप्त होकर एक वही निर्विकार पूर्ण चिति ही विद्यामान है। सबको सत्तास्फूर्ति प्रदान करने वाली चिति से विमुक्त होकर जो कुछ भी है वह शून्य है, वन्ध्यापूत्र के समान है। जैसे सर्प, धारा, माला आदि भेदों में एक रज्जु ही अनेकधा भासित हेती है, वैसे ही एक चिद्रूप आत्मा ही अनेक रूप में भासित होता है। जैसे अधिष्ठान के बिना कल्पित पदार्थ की सत्ता और स्फूर्ति नहीं टिक सकती उसी तरह सच्चित् स्वरूप परमतत्त्व के बिना कल्पित विश्व में सत्ता और स्फूर्ति नहीं रहती।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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