भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
गजेन्द्र-मुक्ति
यह कथा व्यापाक रूप से अध्यात्मभाव में देखी जाती है। कारण (अव्यक्त) चैतन्य क्षीरसमुद्र है त्रिगुणात्मिका माया त्रिकूटाचल है। तदाश्रित संसारारण्य में भटकने वाला जीवात्मा ही गजेन्द्र है। आध्यात्मिक आधिदैविक, आधिभौतिक अनुगुण वृत्तियाँ तथा विविध सम्बन्धी ही उसके साथी हाथी और हथिनी है, महामोहरूप ग्राह से ग्रस्त जीवात्मा को कोई भी सम्बन्धी बचाने में समर्थ नहीं होते। जब जीवात्मा की अपनी शक्ति बेकार हो जाती है, वह निराधार, निराश्रय होकर डूबने को होता है, तब उसे प्राकृत सुकृत कर्मों के सद्विपाक से भगवान का स्मरण होता है सर्वसाधनविहीन विपन्न प्राणों के मानस प्रणामात्र से प्रभु संतुष्ट हो जाते हैं, अपना सब कुछ भूलकर दौड़ पड़ते हैं। भावुकों का कहना है कि गजेन्द्र ‘हरि’ इन दो अक्षरों का नाम भी उच्चारण नहीं करने पाया था कि भगवान भगवान आ गये। सुनते हैं कि सत्यभामा ने प्रभु से पूछा कि कहाँ जोने की जल्दी है, तब भगवान ने ‘हाथी’ कहा। परन्तु ‘हा’ सत्यभामा के पास और ‘थी’ यहाँ ग्राह के मुख में गजेन्द्र को उबारकर। ऐसे अशरणशरण अकारणकरुण, करुणा-वरुणालय भगवान आर्त्तत्राणपरायण हैं। वृन्दावन के श्रीगोविन्द जी महाराज के उपासक एक मेरे स्नेही ने कहा था कि श्रीगोविन्द जी महाराज का संकेत है कि इस समय के धार्मिक संकट और विविध अशान्तिमय उपद्रवों को दूर करने के लिये गजेन्द्र स्तुति का पाठ घर-घर में होना परमावश्यक है और भी वृद्धों से सुना जाता है कि इसका आश्रय लेने से लोग बड़ी-बड़ी विपत्तियों से छुटकारा पा जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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