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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
बुद्धावतार का प्रयोजन
अत: भगवान भी गीता में कर्तव्याकर्तव्यनिर्णय के लिये एकमात्र शास्त्र को ही प्रमाण कहते हैं-
यहाँ ‘शास्त्र’ शब्द का अर्थ वेद एवं तदनुयायी स्मृति, इतिहासादि ही है। अतः प्रथम वेदों की अपौरूषेयता पर ही विचार होता है। भट्टपाद शंकराचार्य आदि महाविद्वानों ने सर्वापेक्षया अधिक विचार वेदों की अपौरूषेयता पर ही किया है। अतः अपौरुषेय वेद ही मुख्य शास्त्र है, उनको मानने वाला ही आस्तिक और उनके निन्दक ही नास्तिक हैं। वैदिक लोग श्रीकृष्ण की ‘गीता’ का उपनिषदरूप गौ का दुग्ध होने से आदर करते हैं, न कि सर्वज्ञ परमेश्वर की उक्ति होने से - ‘‘सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।’’ यहाँ विज्ञगण भगवान की सर्वज्ञता का उपयोग अकृत्रिम वेद का सिद्धान्त निर्णय करने में करते हैं। सर्वज्ञ निर्मित भी ग्रन्थ कृत्रिम होने से वैसा आदरणीय नहीं होता, जैसा कि अकृत्रिम अपौरुषेय वेद। अत: आस्तिक गण बुद्धि की पूजा करते हुए भी वेद विरुद्ध होने से उनकी उक्ति का आदर नहीं करते। श्रीकृष्ण की उक्ति का वेदसम्मत होने से आदर करते हैं। एक बार भीष्म जी अपने पिता का श्राद्ध कर रहे थे, उस समय उनके पिता का दिव्य हस्त प्रकट हुआ। भीष्म ने उसे पहचाना और वैदिको से प्रश्न किया कि ‘‘क्या हस्त पर पिण्डदान करने की विधि है?’’ वैदिको ने कहा‘‘‘ ‘‘नहीं, वेदी और कुशाओं पर ही पिण्ड-प्रदान की विधि है।’’ तब भीष्म ने हस्त पर पिण्ड न देकर कुशाओं पर ही पिण्डदान किया। भीष्म के पिता बड़े प्रसन्न हुए और कहा कि ‘‘मैं तुम्हारी शास्त्र श्रद्धा देखने को ही प्रकट हुआ था।’’ इस दृष्टि से वेद ही मुख्य शास्त्र है, तदुक्त कर्म ही मुख्य धर्म है, उनकी मर्यादा-रक्षार्थ ही बुद्धदेव एवं शंकराचार्य का अवतार हुआ। वैदिक धर्म से यद्यपि प्राणिमात्र का कल्याण हो सकता है, परन्तु अधिकार के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, त्रैवर्णिक उपनयनादि संस्कार सम्पन्न होकर वेदाध्ययन के अधिकारी हैं। शूद्र, अन्त्यज आदि वेदोपबृंहण रूप इतिहास-पुराण-श्रवण के अधिकारी हैं। राजसूय में क्षत्रिय का अधिकार है, ब्राह्मण का नहीं और वाजपेय में ब्राह्मण का ही अधिकार है, क्षत्रियादि का नहीं। जैसे वैद्य के औषधालय की सभी औषध सब रोगियों के लिये उपयुक्त नहीं है, वैसे ही वेदोक्त सभी कर्म सबके लिये उपयुक्त नहीं है। किन्तु वहाँ अधिकार की चर्चा आवश्यक है। इन सब विचारों का ध्यान रखने से बुद्धदेव को भगवान का अवतार मानते हुए भी उनके उपदेश को अधर्म बतलाने में कोई विरोध नहीं पड़ता। यदि साधारण दृष्टि से देखें तो भी इससे वैदिक धर्म की अनुपमेय उदारता का ही परिचय मिलता है। वैदिक धर्म को छोड़कर क्या संसार का कोई ऐसा धर्म है, जिसने अपने विरोधी को भगवान का अवतार मानकर उसका आदर किया हो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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