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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
बुद्धावतार का प्रयोजन
बुद्धदेव महाविरक्त और सिद्ध थे। उन्होंने अपने चमत्कारों से उन असुर-स्वभाव वालो के मनों को मोहित कर लिया, फिर वेदों और वेदोक्त धर्मों से उनकी अश्रद्धा उत्पन्न कर दी। जब बुद्धदेव में ऐेसे लोगों की पूर्ण श्रद्धा उत्पन्न हो गयी, तब उन्होंने जो कुछ भी कहा उस पर उन लोगों ने पूर्ण विश्वास किया। बस, वे भी वेद और वेदोक्त धर्म की निन्दा करने लगे। जो किसी समझाने से भी असम्भव था वह सरल हो गया इस कार्य के सम्मन्न हो जाने पर बुद्धदेव ने उस रूप से फिर दूसरी बात कहना अनुचित समझा। बाद में जब बुद्ध के चमत्कार के प्रभाव से धर्माधिकारियों को भी अपने धर्म से अश्रद्धा होने लगी, तब फिर भगवान को अवतार ग्रहण की आवश्कता प्रतीत हुई। अतः वेद एवं तदुक्त धर्मों में श्रद्धा स्थिर करने के लिये भगवान फिर शंकराचार्य रूप में प्रकट हुए और बौद्धमत-खण्डन करके वैदिक धर्म की स्थापना की। इस तरह दोनों ही अवतारों की सार्थकता हो जाती है। वैदिकगण जैसे भगवान को अनादि मानते हैं, वैसे ही वेदों का भी। अत: ‘नास्तिको वेदनिन्दकः’ के आधार पर वेदनिन्दक को ही नास्तिक कहा जाता है। तुलसीदास जी ने भी कहा है कि-
अत: आस्तिक लोग भगवान से भी अधिक सम्मान वेदों का करते हैं। नैयायिक आदि परमेश्वर-निर्मित होने से वेदों का प्रामाण्य हैं। परन्तु, वेदान्तियों का कहना है कि यदि परमेश्वरनिर्मित होने से वेदों को प्रामाण्य है तो यह कहना होगा कि परमेश्वर में क्या प्रमाण है? यदि वेद को प्रमाण कहें, तब तो ‘अन्योऽन्याश्रयदोष’ अवश्य होगा अर्थात वेद के आधार पर ईश्वर सिद्धि और ईश्वर-निर्मित होने से वेदप्रमाण्यसिद्धि। कहा जा सकता है कि ‘क्षित्यड्कुरादिकं सकत्तर्तृ कं कार्यत्वात् धटवत्’ इत्यादि अनुमानो से परमेश्वर की सिद्धि होगी और ईश्वरनिर्मित होने से वेदों का प्रामाण्य सिद्ध होगा। पर यह पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि अनुमान से ईश्वर सामान्य की ही सिद्धि होती है, ईश्वर विशेष की नहीं, जैसे धूम से वह्नि सामान्य की ही सिद्धि होती है वह्निविशेष की नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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