भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
केवल शक्तिरूप से ही नहीं, किन्तु ब्रह्मरूप से भी अनेक स्थलों में उसी का प्रतिपादन मिलता है।
अचिन्त्य अमित आकारों की मूलभूता सत्तास्वरूपा भी वही है, वही गुणातीत है। निर्विकल्पबोध से ही स्वप्रकाशरूपेण भगवती की अवगति होती है, अत: अद्वितीय परब्रह्मस्वरूप से भगवती नित्य ही प्रसिद्ध हैं। ‘केनोपनिषद्’ में ब्रह्मविद्यारूप भगवती का वर्णन मिलता है, उसी की कृपा से इन्द्र आदिकों को ब्रह्मस्वरूप का बोध हुआ था। जब इन्द्र के सामने से ब्रह्म का अन्तर्धान हो गया, तब इन्द्र लज्जित होकर उसी आकाश में खड़ा रह गया और तपस्या करने लगा। बहुत दिनों की तपस्या से सन्तुष्ट होकर भगवती इन्द्र के सामने प्रकट हुई- ‘‘स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमां हैमवतीम्।’’ इन्द्र ने उसी आकाश में बहुशोभमाना हैमअलंकारों से युक्त ब्रह्मविद्यारूपा भगवती को देखा और उसकी कृपा से ब्रह्म को जाना। शक्ति के उपासको का तो शक्ति सर्वस्व है ही परन्तु तत्त देवताओं के उपासकों को भी शक्ति की आराधना करनी पड़ती है। यहाँ तक कि शक्ति की उपासना के बिना उन-उन देवताओं की प्राप्ति ही नहीं होती। संमोहन तन्त्र में तो स्पष्ट ही यह उक्ति है कि गौरतेज राधिका की उपासना किये बिना, जो केवल श्यामतेज कृष्ण की आराधना करता है, वह पातकी होता है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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