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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
परन्तु दूसरे कहते हैं- नहीं, आखिर सम्बन्ध तो हुआ न, किसी भी तरह सही। इसी से कृतकृत्यता हो जाता है। अतः पात्र '‘चषक’ भी परम्परा से कृतार्थ हुए। ऐसे पात्र का तो स्पर्श करने वाले भी कृतार्थ हो जाते हैं। ब्रह्मादि इतने ही से अपने को धन्य मानते हैं। वंशी को श्यामसुन्दर की अधरसुधा का सम्बन्ध होने पर रसास्वाद भी अवश्य हुआ ही, अत: गोपांगनाजन ही की परस्पर उक्ति है- “गोप्यः किमाचरदयं कुशलं स्म वेणुः” अर्थात् इस वेणु ने कौन पुण्य किया है जो श्रीश्यामसुन्दर इसको अपने हस्तारविन्दों में लेते, अधर पर पधराते, अपने सुकोमल अंगुलीदल से इसका पादसंवाहन करने, अधरामृत का भोग लगाते और मुकुट का छत्र लगाकर कुण्डलों से इसकी आरती उतारते हैं, कैसी अनोखी पूजा करते हैं? यह तो जो ताल-तलाइयों में कुमुदिनी का विकास-प्रफुल्लता देख पड़ रही है, यह इन्हें वंश (बाँस) के सौभाग्योदय पर हर्षातिरेक से मानों रोमान्च हुआ है। यह समझते हैं कि हमारे ही जल से पालित, पुष्ट होकर वंशी की यह इतनी उन्नति हुई है, वह श्रीमनमोहन के अधर पर शोभित हुई है। इस अवसर पर इनको कैसी प्रसन्नता हुई, जैसी पाल-पोसकर बड़े किये गये बालक को साम्राज्य मिलने पर उसके माता-पिता, कुटुम्बियों को होती है। वृक्षों को भी अपने सजातीय वेणु के इस उत्कर्ष पर बड़ी प्रसन्नता हुई। उनके नेत्रों में मधुधारा के व्याज से आनन्दाश्रु बह चले- “तरवोऽश्रुमुमुचुः।” अपने वंश में किसी के भक्तप्रवर होने से जैसे कुल वृद्ध प्रसन्न होते हैं, अपने को धन्य-धन्य मानते हैं, वैसे ही वेणुसजातीय वृक्ष अपने को मानते हैं- अहो हमारी वृक्ष जाति में भला एक तो ऐसा उत्पन्न हुआ, जो कूक-कूककर (निर्भीकता और आनन्द के साथ) श्यामसुन्दर के अधरामृत रस का पान कर रहा है। यदि वंशी को कुछ भी रस का आस्वाद न होता, तो ऐसी बातें कैसे कही जा सकती थीं? यहाँ तर्क हो सकता है कि यदि उस वंशी को रसास्वाद हुआ है, तो यह अब तक सग्रन्थि कैसे? सच्छिद्र कैसे? छिद्रों के रहने पर तो अनर्थ ही होते हैं- “छिद्रेष्वनर्था बहुली भवन्ति” रस का आस्वाद आने पर तत्त्व की स्फूर्ति होने पर तो ग्रन्थि खुल जाती है, छिद्र (दोष) नहीं रह जाते “जदपि मृषा छूटत कठिनई, जड चेतनहिं ग्रन्थि परि गई” परन्तु चरणरज से सब दोष दूर हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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