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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
व्रजांगनादि का वह पात्र इन्द्रियाँ हैं, उसी से वे श्रीश्यामसुन्दर के पादारविन्द-सौन्दर्यामृत का पान करती हैं। उस मादक सुधासव के पान से व्रजांगनाजन को देह, गेह, लोकलाज सब एक बार ही विस्मृत हो गये। इस पर श्रीनन्दनन्दन की उस मोहक मुस्कान से तो वह और भी अधिक पुष्ट हो गयी। इसका पूरा आस्वादन तो व्रजदेवियों को ही प्राप्त हुआ। इस पर थोड़ा विचार करें- पात्र को रस का आस्वाद नहीं आता। दर्वी को, जिससे भक्ष्य वस्तु परोसी जाती है, वस्तु का स्वाद नहीं आता। इसी प्रकार इन्द्रियाँ पात्र मात्र हैं, उन्हें रसा स्वाद नहीं हो सकता। परन्तु यह लौकिक रस की बात है, भगवदविषयक रस अलौकिक, विलक्षण होता है, उसके तो सम्पर्क से भी रसास्वाद की अनुभूति सिद्ध है। ऐसी स्थिति में पात्र-दर्वी आदि को रस का आस्वाद असम्भव नहीं। इस प्रसंग में व्रजदेवियों की वंशी के प्रति ऐसी भावना है कि श्रीश्यामसुन्दर से शतशः सम्पृक्त होते रहने पर भी उसे रस का आस्वाद नहीं मिला। उनकी इस विषय में उपपत्ति इस प्रकार है- वंशी को वस्तुतः अधरामृत नहीं दिया गया। यदि ऐसा होता, तो यह सूखी ही कैसे रह जाती? उस वेणुगीत पीयूष से यमुना भी जमकर इन्द्र नीलमणि की शिला के समान हो गयी और पाषाण भी यमुना प्रवाह की तर बह चले, पर बाँस की वंशी में एक पल्लव तक नहीं जमा, यह पोली, शुष्क सग्रन्थि और सच्छिद्र ही रह गयी। जहाँ “अस्पन्दनं गतिमतां पुलकस्तरूणाम्” के अनुसार स्थिर पदार्थ जंगम बन गये और जंगम स्थिर हो गये, सूखे हरे हो गये, वहाँ वंशी के पल्ले कुछ नहीं लगा। यह तो केवल विप्रयोगलीला में वंशीछिद्रों से हमारे (व्रजदेवियों के) के कुर्णकुहरों में प्रविष्ट होने का, हमारी जीवन रक्षा का उपाय मात्र किया गया है। इस सिद्धान्त से वंशी की तरह दर्वी सूखी ही है, रसासम्पृक्त ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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