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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
अत: बेचारे नेत्रादिरूप से परम्परा सम्बन्ध स्थापित करते हैं। उनकी दृष्टि में धन्य हैं वे व्रजवासी, जो अपने नेत्रादि से साक्षात् श्यामसुन्दर के चरणामृत, सौगन्ध्याद्यमृत का पान करते हैं। नेत्र का अधिष्ठातृदेव सूर्य है। वह इतने में ही कृतकृत्य है कि किसी भी व्रजवासी ने श्यामसुन्दर को मदधिष्ठातृक नेत्र से देखा। नासिक के देवता अश्विनीकुमार हैं। वे व्रजवासी के घ्राण से अपना सम्बन्ध स्थापित करके आनन्दमग्न हैं। श्रोत्रों (कानों) की अधिष्ठात्री दिग्देवता है। व्रजवासी श्रीनन्दनन्दन के वचन और वेणुगीत को सुनते हैं, इसी में वह फूली नहीं समाती। वह सोचती है- धन्य हूँ मैं, जो मदधिष्ठातृक श्रोत्रों से व्रजवासी श्रीश्याम के वेणुगीत को सुनते हैं। चित्त के अधिष्ठाता ब्रह्मा हैं। इसी प्रकार विभिन्न इन्द्रियों के विभिन्न अधिष्ठाता हैं। सब इसी प्रकार अपने को कृतकृत्य मानते हैं। स्वयं ब्रह्मा जी ने भगवान की स्तुति करते समय कहा है- हे अच्युत, इन व्रजवासियों के भाग्य की महिमा का कोई भी वर्णन नहीं कर सकता। जो कि हम लोग रुद्र, चन्द्र आदि इसलिये प्रशस्त भाग्यशाली हैं कि इनके इन्द्रियरूप पात्रों से आपके चरणकमल-मकरन्द का, जो अमृत के समान अति मिष्ट और आसव के जैसा मदकारी है, बार-बार पान करते हैं। जब एक-एक इन्द्रिय के अभिमानी हम लोग आपकी कीर्ति, सौन्दर्य, सौगन्ध्य आदि एक देश के सेवन करने वाले भी कृतार्थ हैं, तब समस्त इन्द्रियों से सर्वसेवी इन व्रजवासियों के भाग्य की सराहना किन शब्दों में की जाय?
इन्द्रियादि के ये अधिष्ठाता हैं- अहंकार के शिव, बुद्धि के ब्रह्मा, मन के चन्द्रमा, श्रोत्रों की दिशाएँ, त्वक (त्वचा) के वायु, नेत्रों के सूर्य, जिह्वा के वरुण, नासिका के अश्विनीकुमार, वाणी के अग्नि, हस्त के इन्द्र, चरण के उपेन्द्र, पायु के मित्र, उपस्थ के प्रजापति और चित्त के अधिष्ठाता स्वयं भगवान माने गये हैं। पान पात्र का नाम ‘चषक’ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भाग. 10।14।33)
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