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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
‘प्रियाल’ पीले साल वृक्ष का नाम है (प्रियाः इति आलापो यस्य सः) सखीगण जिसे प्रिय हों, यह नामार्थ ‘प्रियाल’ का गोपांगनाओं ने निकाला। “सखि, वह हम सखियों पर अवश्य अनुकम्पा करेगा, यह अवश्य हमारा हित सोचेगा। हित तो श्रीश्यामसुन्दर के मिलन में है, सो यह उनका पता बतलायेगा। अजी! यह ‘प्रिय’ लाति इति प्रियालः’ है प्रिय श्रीकृष्ण को देने वाला है।” ‘प्रियं लाति’ अर्थात् जो प्रिय पदार्थ को दे, वह ‘प्रियाल’ है। वृन्दावन का ‘प्रियाल’ श्रीकृष्ण को देने वाला है। ‘वृन्दावनशतक’ में वृन्दावनस्थ तरुओं की बड़ी महिमा कही गयी है। कहा है- ‘यदि तुमसे और कुछ भजन-भावना नहीं बन सकती तो इन वृक्षों का ही दर्शन करो, ये तुम्हें तुम्हारे प्रिय को देंगे, स्वयं प्रिय का अन्वेषण करके तुम्हें समर्पित करेंगे।’ इस अंश में वृन्दावन के सभी वृक्ष ‘प्रियाल’ हैं, फिर साक्षात प्रियाल की तो बात ही क्या? इसी आशा से गोपीजन प्रियाल की प्रशंसा करती हैं। अद्भुत प्रेमोन्माद में उन्हें जड़ और चेतन का ज्ञान नहीं रह गया, उन्हें अभी यही भावना बनी है कि ये हमें अभी प्रिय का पता देंगे। प्रेमी की आशा का कुछ ठिकाना नहीं, वह जड़ में भी चेतन की कल्पना करता है। प्रेम की प्रतिमूर्ति व्रजदेवियाँ श्यामसुन्दर के आभूषणों की, माला की प्रशंसा करती हैं। इतना ही नहीं, वे तो उस वायु की भी स्तुति करने को उद्यत हैं, यदि वह मोहन प्यारे की ओर से आ रहा हो। वे चन्द्रमा से कहती हैं- ‘हे हिमकर, अपनी किरणों (करों) का हमसे स्पर्श न होने दो, परन्तु यदि वे (आपकी किरणें) प्यारे श्यामसुन्दर का स्पर्श करके आयी हों, तो उनसे हमें अवश्य स्पर्श करो, हम तुम्हारा उपकार मानेंगी।’ इस से अधिक परम्परा सम्बन्ध की महिमा क्या होगी? परन्तु ब्रह्मादि देवता इस पर परम्परा में और भी आगे बढ़े हैं। वे इसी में कृतार्थ हैं कि अस्मदधिष्ठातृक तत्तदिन्द्रियों से व्रजवासी उस आनन्द सिन्धु ब्रह्मतत्त्व का दर्शन, स्पर्श, श्रवण आदि कर रहे हैं, क्योंकि देवता लोग देवत्व के कारण साक्षात रूप से उस ग्वारिये गोपाल की रसमाधुरी का आस्वाद लेने में सर्वथा असमर्थ हैं, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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