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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
वे हरिण अपनी हरिणियों को साथ लेकर दर्शन करने आते हैं, सब जगह जाकर दर्शन करते हैं, अतः वे हरिणियाँ धन्य हैं।-
परन्तु ‘वयं अधन्याः’। कथश्चित् दर्शनार्थ जायँ भी, पर यह जन्म तो एक कुलीन वंश में हुआ है - “जनुः परमिदं कुलीनान्वये।” खानदान में बट्टा लग जाने का भय है। अहह! कितनी विवशता है, तथापि क्या यह मैं अब तक जी रही हूँ? हा! मुझे भला मौत कहाँ? - “न जीवति तथापि कि परमदुर्मरोऽयं जनः?” मरना बड़ा कठिन है, मर जाऊँ, तो अच्छा। मृत्यु से भी कहीं अधिक ये प्राणधन के वियोग के कष्ट तो न होंगे। इस प्रकार के चिन्ता-सन्ताप में मग्न श्रीराधिकारानी किसी समय अपने लीलाशुक को अपने हस्तारविन्द के अंगुष्ठ प्रान्त पर बिठाकर उसे दाड़िमी बीज चुगाती हुई, स्नेह से उसके चंचुपुट का चुम्बन करती हुई पढ़ा रही थीं - “कृष्ण कहु, कृष्ण कहु, राधा कहु मति रे।” शुक बहुत विशेषज्ञ था, अपनी पालिका पर उसे प्रेम और दया थी, उसके वियोग दुःख को देखकर वह दुःखी था। वह तुरन्त पद्य सन्देश लेकर उड़ा और श्रीनन्दराय के प्रांगण में जा पहुँचा, जहाँ श्रीश्यामसुन्दर क्रीड़ा में आसक्त थे। एक ऊँची सी जगह निर्भीक भाव से बैठकर वह पद्य उसने उन्हें सुनाया। अपनी परमात्मरंगा आह्लादिनी प्रिया का वह भाव गम्भीर पद्य सुनकर श्रीश्यामसुन्दर मुग्ध हो गये। बड़े आग्रह एवं अनुनय से श्रीकृष्ण ने उस शुक को अपने पास बुलाया, अपने सुकोमल हस्तारविन्द पर उसे बिठलाकर कई बार उस पद्य को सुना और समीक्षा करने लगे - ‘यह किसी महानुरागवती का पद्य है। इतने ही में वहाँ मधुरिका और कुसुमासव सखा भी आ गये। परस्पर प्रश्न हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भाग. 10।21।11)
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