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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
‘उज्ज्वलनीलमणि’ में कहा गया है कि रसशास्त्र में प्रधान रस के पोषण प्रसंग में परोढा के परिग्रह में कवियों ने जो रसाभाव माना है, वह गोकुलांगना समूह को छोड़कर है, क्योंकि इसमें दुर्लभता, प्रच्छन्नकामुकता आदि से उत्कण्ठा वृद्धि अद्भुत प्रेमप्राखर्य आदि होते हैं। इस रूप में यह सब (परकीयात्व आदि के पोषक भाव) प्रीति वृद्धि के लिये होते हैं। जितनी-जितनी प्राप्तव्य के प्रति दुर्लभता बढ़ती जाती है, उतनी ही उसके प्रति गाढ़ानुरागता भी बढ़ती है। फिर वह साधारण विषयक न होकर सर्वेश्वर के प्रति है। श्रीराधा की यह जो श्रीकृष्ण-विषयक दुर्लभता बतलायी गयी है, वह वैसे ही है, जैसे अमृत और उसकी मधुरिमा का कभी भी वियोग न होने पर भी वियोग और विह्वलता बतलायी जाय। सारस तथा लक्ष्मणा का सर्वदा संयोग रहता है और चक्रवाक-चक्रवाकी का सर्वदा वियोग रहता है। यहाँ दोनों का सामंजस्य है। अनन्तकोटि गुणित संयोग एवं वियोग का श्रीश्यामा-श्याम को एक काल में सदा आस्वाद बना रहता है। श्रीजीव गोस्वामी ने एक प्रसंग में कहा है कि कुलांगना के लिये सबसे बड़ा कष्ट-महाकष्ट लज्जा त्याग है। परन्तु यह बड़े से बड़ा दुःख भी श्रीश्यामसुन्दर नटनागर के सम्बन्ध में उतना ही महान सौख्य हो जाता है, यह दुःख अनन्त, अलौकिक सुख विषयक है। यही प्रेम का प्राखर्य है। माता-पिता आदि के तीव्रातितीव्र निषेध जैसे-जैसे बढ़ते जाते हैं, प्रीति उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है। श्रीवृषभानुनन्दिनी इस प्रकार अपने प्रेम प्राखर्य और विविध निरोधों का अनुभव कर रही हैं। वह सोचती हैं कि ‘यदि मैं आज कोई पक्षी होती, तो दर्शनार्थ उड़कर प्रेष्ठ के समीप पहुँच जाती। पर करूँ क्या? ‘वपुः परवशम’ यह शरीर परवश है। इसी समय उन्हें पुलन्दियों, हरिणियों का स्मरण होता है। वे उनका भाग्य सराहती हैं - “अहो! वे भील-भामिनियाँ धन्य हैं, जिन्हें प्रियतम-पादारविन्द-संलग्न कुंकुम का तो दर्शन मिला। इनसे भी अधिक धन्य वे हरिणांगनाएँ हैं, जो अपने पतियों के साथ उन नन्दनन्दन का प्रेमावलोक से पूजन करती हैं, दर्शन करती हैं। उनके पति ‘कृष्ण सार’ (कृष्ण एव सारो येषां ते) हैं। हम गोपांगनाओं के पति ‘अभिमान सार’ हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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