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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
अहह, गोपांगनाओं के आगे प्रेम की पराकाष्ठा हो गयी। श्री कृष्णानुराग गंगा के महाप्रवाह से उनके धैर्य का बाँध टूट गया, जड़-चेतन का भेद मिट गया। एक ही बात, एक ही धुन में वे व्यग्र हैं- किसी भी तरह प्राणप्यारे, श्याम साँवरे का दर्शन मिलें वृक्षों से पूछती हैं- “हे कालिन्दीकूलवासी, विशुद्ध, परोपकार कोविदारादि वृक्षो! कृपा कर हमें श्री कृष्ण का मार्ग बताओ, वे किस ओर पधारे है? हमें शीघ्र बताओ।” मानो वृक्षों ने उत्तर दिया- “व्रजांगनाओं! आप स्वयं ही उन्हें ढूंढ़ो, हम लोग तो जड़ हैं, असमर्थ हैं।” वे प्रेमवमत्त, उन्माद में निमग्न व्रजबालाएँ स्वयं ही कल्पना कर लेती हैं, स्वयं ही सब उत्तर-प्रत्युत्तर कर लेती हैं। वृक्षों की बात सुनकर वे बोलीं- “हे परोपकारी तीर्थवासी वृक्षो! हमारा धैर्य छूट गया है, अन्तःकरण वश में नहीं है। कृष्णान्वेषण अब हमारे सामर्थ्य के बाहर की बात है। यह तो कृपा अब आप ही करो, उनको बतला दो। आप लोगों का जन्म परोपकार के लिये है। देखो, कोई धनहीन, जनहीन, गेहहीन होते हैं, अन्यान्य बुद्ध्यादि से हीन होते हैं, परन्तु हम तो आत्महीन हैं। हमारी तो आत्मा ही नहीं रह गयी है। दोनों का सन्त्राण सज्जनकृत्य है। दया पात्र कौन है? देहरहित, गेहरहित, इन्द्रियरहित, बलरहित, व्यंगाग, विकलांग नहीं, बल्कि हम हैं, जो अन्तःकरण से शून्य हैं, आत्मा से रहित हैं। हमसे बढ़कर वृक्षो! दूसरा दया पात्र और कोई नहीं मिलेगा। हम तो आत्म रहित हैं, वे त्रिभंगललित घनश्याम हमारी आत्मा हैं, सर्वस्व हैं। हम दयनीयों को बतलाओ, वे सर्वस्वहारी, मुरलीधारी किस ओर गये हैं?” लोकवेद में प्रसिद्ध है कि संसार में किसी से भी; प्रेम अपने ही लिये होता है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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