भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
इस तरह अर्थापत्ति के अतिरिक्त- यह अनुमान भी शक्ति के अस्तित्व में प्रमाण है। ईश्वर मानने वालों के मत में अतीन्द्रियता सिद्ध नहीं है, यह भी कहना ठीक नहीं, क्योंकि अतीन्द्रिय शब्द का अर्थ है प्रमाणान्तर से उपनीत विशेषण के अतिरिक्त और अनुव्यवसाय के अतिरिक्त अस्मदादि प्रत्यक्ष का अविषय होना। वह अतीन्द्रियत्व गुरुत्वादि और भावनादि में प्रसिद्ध होने से प्रशस्तपाद ने कहा है कि गुरुत्व, धर्माधर्म और भावना अतीन्द्रिय है- यहाँ भावना पद स्थितिस्थापक का भी उपलक्षण है। प्रश्न हो सकता है कि यहाँ आश्रय शब्द से आधार मात्र विवक्षित है या उसका समवायित्व? वह्नि कदाचित परमाणु या वायु का आधान होकर सिद्धसाधनता होने से प्रथम पक्ष नहीं माना जा सकता। दूसरी बात भी नहीं कही जा सकती, क्योंकि समवाय न मानने वाले भाट्ट के मत में विशेषण अप्रसिद्ध हो जाएगा। परन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि समवाय न मानते हुए भी स्वीय रूपादि के समान अयुत सिद्ध होने के कारण अग्नि की विशिष्ट धर्माधारता ही आश्रय शब्द का अर्थ है। अतीन्द्रिय कर्माश्रय होने से मीमांसक की अर्थान्तरता कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि प्रभाकर की तरह शक्ति मानने वाले भाट्ट और वेदान्ती भी कर्म की अतीन्द्रियता नहीं मानते। विपक्ष में वह्निस्वरूप ही कारण होने से प्रतिबन्ध के भाव की कारणता का पहले ही निराकरण किया जा चुका है, अतः मन्त्रादि के रहने पर समान रूप से कार्य-जननप्रसंग बाधक है। यह भी कहना ठीक नही कि एवंविध धर्माश्रय होने से गुण-कर्मादि भी द्रव्य कहे जायेंगे, क्योंकि वे गुण के अधिकरण नहीं हैं। यदि कहा जाय कि एतादृश धर्माश्रय होने से गुणाधिकरण भी हो जाय, तो यह ठीक नहीं, क्योंकि इसका विपर्यय में पर्यवसान नहीं होता। यदि कहा जाय कि जो गुण का अधिकरण नहीं है, वह एवंविध धर्म का अधिकरण नहीं होता, ऐसा प्रतिवादिसम्मत उदाहरण होने से उक्त प्रसंग का विपर्यय में पर्यवसान हो जायेगा, क्योंकि शक्ति के अतिरिक्त सभी पक्ष कोटि में निक्षिप्त हैं। इस तरह प्रथम अनुमान का समर्थन किया गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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